Wednesday, November 11, 2020

शीर्षा छंद (शैतानी धारा)

शीर्षा छंद / शिष्या छंद

शैतानी जो थी धारा।
जैसे कोई थी कारा।।
दाढों में घाटी सारी।
भारी दुःखों की मारी।।

लूटों का बाजे डंका।
लोगों में थी आशंका।।
हत्याएँ मारामारी।
सांसों पे वे थी भारी।।

भोले बाबा की मर्जी।
वैष्णोदेवी माँ गर्जी।।
घाटी की होनी जागी।
आतंकी धारा भागी।।

कश्मीरी की आज़ादी।
उन्मादी की बर्बादी।
रोयेंगे पाकिस्तानी।
गायेंगे हिंदुस्तानी।।
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शीर्षा छंद / शिष्या छंद विधान -

शीर्षा छंद जो कि शिष्या छंद के नाम से भी जाना जाता है, ७ वर्ण प्रति चरण का वर्णिक छंद है।

"मामागा" कोई राखे।
'शीर्षा' छंदस् वो चाखे।।

"मामागा" = मगण मगण गुरु
222 222 2 = 7 दीर्घ वर्ण की वर्णिक छंद।दो-दो चरण समतुकांत।
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
05-10-20

Thursday, November 5, 2020

ग़ज़ल (जो गिरे हैं उन्हें हम उठाते रहे)

बह्र:- 212*4

जो गिरे हैं उन्हें हम उठाते रहे,
दर्द में उनके आँसू बहाते रहे।

दीप हम आँधियों में जलाते रहे।
लोग कुछ जो इन्हें भी बुझाते रहे।

जो गरीबी की सह मार बेज़ार हैं,
आस जीने की उन में जगाते रहे।

राह मज़लूम की तीरगी से घिरी,
रस्ता जुगनू बने हम दिखाते रहे।

खुद परस्ती ओ नफ़रत के इस दौर में,
हम जमाने से दामन बचाते रहे।

अम्न की आस जिनसे लगा के रखी,
पीठ में वे ही खंजर चुभाते रहे।

ये ही फ़ितरत 'नमन' तुम को करती अलग,
बाँट खुशियाँ ग़मों को छुपाते रहे।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
23-09-19

ग़ज़ल (रहे जो गर्दिशों में ऐसे अनजानों)

बह्र:- 1222 1222 1222 1222

रहे जो गर्दिशों में ऐसे अनजानों पे क्या गुज़री,
किसे मालूम उनके दफ़्न अरमानों पे क्या गुज़री।

कमर झुकती गयी पर बोझ जो फिर भी रहे थामे,
न जाने आज की औलाद उन शानों पे क्या गुज़री।

अगर इस देश में महफ़ूज़ हम हैं तो ज़रा सोचें।
वतन की सरहदों के उन निगहबानों पे क्या गुज़री।

मुहब्बत की शमअ पर मर मिटे जल जल पतंगे जो,
खबर किसको कि उन नाकाम परवानों पे क्या गुज़री।

'नमन' अपनों की कोई आज चिंता ही नहीं करता,
सभी को फ़िक्र बस रहती कि बेगानों पे क्या गुज़री।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
2-2-18

ग़ज़ल (कैसी ये मज़बूरी है)

बह्र:- 2222 2222 2222 222

गदहे को भी बाप बनाऊँ कैसी ये मज़बूरी है,
कुत्ते सा बन पूँछ हिलाऊँ कैसी ये मज़बूरी है।

एक गाम जो रखें न सीधा चलना मुझे सिखायें वे,
उनकी सुन सुन कदम बढ़ाऊँ कैसी ये मज़बूरी है।

झूठ कपट की नई बस्तियाँ चमक दमक से भरी हुईं,
अपना घर में वहाँ बसाऊँ कैसी ये मज़बूरी है।

सबसे पहले ऑफिस आऊँ और अंत में घर जाऊँ,
मगर बॉस को रिझा न पाऊँ कैसी ये मज़बूरी है।

ऊँचे घर में तोरण मारा पहले सोच नहीं पाया,
अब नित उनके नाज़ उठाऊँ कैसी ये मज़बूरी है।

सास ससुर से माथा फोड़ूं  साली सलहज एक नहीं,
मैं ऐसे ससुराल में जाऊँ कैसी ये मज़बूरी है।

डायटिंग घर में कर कर के पीठ पेट मिल एक हुये,
पर दावत में ठूँस के खाऊँ कैसी ये मज़बूरी है।

कारोबार किया चौपट है चंदे के इस धंधे ने,
हर नेता से आँख चुराऊँ कैसी ये मज़बूरी है।

पहुँच बना कर लगी नौकरी तनख्वाह में अब सेंध लगी,
ऊपर सबका भाग भिजाऊँ कैसी ये मज़बूरी है।

झूठी वाह का दौर सुखन में 'नमन' आज ऐसा आया,
नौसिखियों को मीर बताऊँ कैसी ये मज़बूरी है।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
21-04-18

Friday, October 23, 2020

पिरामिड (बूंद)

(1)

है
रुत
पावस,
वर्षा बूंदें
करे फुहार,,
मिटा हाहाकार,
भरा सुख-भंडार।
***
(2)

क्यों
होती 
विनष्ट,
आँखें मूंद
जल की बूंद,
ये न है स्वीकार,
हो ठोस प्रतिकार।
***

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
09-07-19

हाइकु (कोरोना)

कोरोनासुर
विपदा बन कर
टूटा भू पर।
**

यह कोरोना
सकल जगत का
अक्ष भिगोना।
**

कोरोना पर
मुख को ढक कर
आओ बाहर।
**

कोरोना यह
जगत रहा सह
कैदी सा रह।
**

कोरोना अब
निगल रहा सब
जायेगा कब?
**

बासुदेव अग्रवाल नमन
तिनसुकिया
14-08-20

Thursday, October 15, 2020

गुर्वा (प्रशासन)

सोया पड़ा हुआ शासन,

कठिन बड़ा अब पेट भरण,

शरण कहाँ? केवल शोषण,

***


ले रहा जनतंत्र सिसकी,

स्वार्थ की चक्की चले,

पाट में जनता विवस सी।

***


चुस्त प्रशासन भी बेकार,

जनता सुस्त निकम्मी,

लोकतंत्र की लाचारी।

***


बासुदेव अग्रवाल 'नमन'

तिनसुकिया

2-05-20

मौक्तिका (बालक)

2212*4 (हरिगीतिका छंद आधारित)

(पदांत 'को जाने नहीं', समांत 'आन')


प्रतिरूप बालक प्यार का भगवान का प्रतिबिम्ब है,

कितना मनोहर रूप पर अभिमान को जाने नहीं।।

पहना हुआ कुछ या नहीं लेटा किसी भी हाल में,

अवधूत सा निर्लिप्त जग के भान को जाने नहीं।।


चुप था अभी खोया हुआ दूजे ही पल रोने लगे,

मनमर्जियों का बादशाह किस भाव में खोने लगे।

कुछ भी कहो कुछ भी करो पड़ता नहीं इसको फ़रक,

ना मान को ये मानता सम्मान को जाने नहीं।।


सुन लोरियाँ मूँदे पलक फिर आँख को झट खोलता,

किलकारियों की गूँज से श्रवणों में मधु-रस घोलता।

खिलवाड़ करता था अभी सोने लगा क्यों लाल अब,

ये रात ओ दिन के किसी अनुमान को जाने नहीं।।

नन्हा खिलौना लाडला चिपका रहे माँ से अगर,

मुट्ठी में जकड़ा सब जगत ना दीन दुनिया की खबर।

ममतामयी खोयी हुई खोया हुआ ही लाल है,

माँ से अलग जग में किसी पहचान को जाने नहीं।।

अठखेलियाँ बिस्तर पे कर उलटे कभी सुलटे कभी,

मासूमियत इसकी हरे चिंता फ़िकर झट से सभी।

खोया हुआ धुन में रहे अपने में हरदम ये मगन,

जग की किसी भी चीज के अरमान को जाने नहीं।।

अपराध से ना वासता जग के छलों से दूर है,

मुसकान से घायल करे हर आँख का ये नूर है।

करता 'नमन' इस में छिपी भगवान की मूरत को मैं,

यह लोभ, स्वारथ, डाह या अपमान को जाने नहीं।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'

तिनसुकिया

10-08-2016

राजस्थानी हेली गीत (विरह गीत)

परदेशाँ जाय बैठ्या बालमजी म्हारी हेली!

ओळ्यूँ आवै सारी रात।

हिया मँ उमड़ै काली कलायण म्हारी हेली!

बरसै नैणां स्यूँ बरसात।।

मनड़ा रो मोर करै पिऊ पिऊ म्हारी हेली!

पिया मेघा ने दे पुकार।

सूखी पड्योरी बेल सींचो ये म्हारी हेली!

कर नेहाँ रे मेह री फुहार।।

आखा तीजड़ गई सावण भी सूखो म्हारी हेली!

दिवाली घर ल्याई सून।

कटणो घणो है दोरो वैरी सियालो म्हारी हेली!

तनड़ो बिंधैगी पौ री पून।।


गिण गिण दिवस काटूँ राताँ यादां मँ म्हारी हेली!

हिवड़ै में बळरी है आग।

सुणा दे संदेशो सैंया आवण रो म्हारी हेली!

जगा दे सोया म्हारा भाग।।


बासुदेव अग्रवाल 'नमन'

तिनसुकिया

09-12-2018

Saturday, October 10, 2020

सारवती छंद "विरह वेदना"

वो मनभावन प्रीत लगा।

छोड़ चला मन भाव जगा।।

आवन की सजना धुन में।

धीर रखी अबलौं मन में।।


खावन दौड़त रात महा।

आग जले नहिं जाय सहा।।

पावन सावन बीत रहा।

अंतस हे सखि जाय दहा।।


मोर चकोर मचावत है।

शोर अकारण खावत है।।

बाग-छटा नहिं भावत है।

जी अब और जलावत है।।


ये बरखा भड़कावत है।

जो विरहाग्नि बढ़ावत है।।

गीत नहीं मन गावत है।

सावन भी न सुहावत है।।

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लक्षण छंद:-


"भाभभगा" जब वर्ण सजे।

'सारवती' तब छंद लजे।।


"भाभभगा"  =  भगण भगण भगण + गुरु

211 211 211 2,

चार चरण, दो-दो चरण समतुकांत

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बासुदेव अग्रवाल 'नमन'

तिनसुकिया

21/9/2020

कुंडल छंद "ताँडव नृत्य"

नर्तत त्रिपुरारि नाथ, रौद्र रूप धारे।

डगमग कैलाश आज, काँप रहे सारे।।

बाघम्बर को लपेट, प्रलय-नेत्र खोले।

डमरू का कर निनाद, शिव शंकर डोले।।


लपटों सी लपक रहीं, ज्वाल सम जटाएँ।

वक्र व्याल कंठ हार, जीभ लपलपाएँ।।

ठाडे हैं हाथ जोड़, कार्तिकेय नंदी।

काँपे गौरा गणेश, गण सब ज्यों बंदी।।


दिग्गज चिघ्घाड़ रहें, सागर उफनाये।

नदियाँ सब मंद पड़ीं, पर्वत थर्राये।।

चंद्र भानु क्षीण हुये, प्रखर प्रभा छोड़े।

उच्छृंखल प्रकृति हुई, मर्यादा तोड़े।।


सुर मुनि सब हाथ जोड़, शीश को झुकाएँ।

शिव शिव वे बोल रहें, मधुर स्तोत्र गाएँ।।

इन सब से हो उदास, नाचत हैं भोले।

वर्णन यह 'नमन' करे, हृदय चक्षु खोले।।


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कुंडल छंद *विधान*


22 मात्रा का सम मात्रिक छंद। 12,10 यति। अंत में दो गुरु आवश्यक; यति से पहले त्रिकल आवश्यक।मात्रा बाँट :- 6+3+3, 6+SS

चार चरण, दो दो चरण समतुकांत या चारों चरण समतुकांत।

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बासुदेव अग्रवाल 'नमन'

तिनसुकिया

27-08-20

मानव छंद "नारी की व्यथा"

मानव छंद / सखी छंद / हाकलि छंद

आडंबर में नित्य घिरा।
नारी का सम्मान गिरा।।
सत्ता के बुलडोजर से।
उन्मादी के लश्कर से।।

रही सदा निज में घुटती।
युग युग से आयी लुटती।।
सत्ता के हाथों नारी।
झूल रही बन बेचारी।।

मौन भीष्म भी रखे जहाँ।
अंधा है धृतराष्ट्र वहाँ।।
उच्छृंखल हो राज-पुरुष।
करते सारे पाप कलुष।।

अधिकारी सारे शोषक।
अपराधों के वे पोषक।।
लूट खसोट मची भारी।
दिखे व्यवस्था ही हारी।।

रोग नशे का फैल गया।
लुप्त हुई है हया दया।।
अपराधों की बाढ जहाँ।
ऐसे में फिर चैन कहाँ।।

बने हुये हैं जो रक्षक।
वे ही आज बड़े भक्षक।।
हर नारी की घोर व्यथा।
पंचाली की करुण कथा।।
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मानव छंद विधान -

मानव छंद 14 मात्रिक चार चरणों का सम मात्रिक छंद है। तुक दो दो चरण की मिलाई जाती है। 14 मात्रा की बाँट 12 2 है। 12 मात्रा में तीन चौकल हो सकते हैं, एक अठकल एक चौकल हो सकता है या एक चौकल एक अठकल हो सकता है।

मानव छंद में ही किंचित परिवर्तन से मानव जाति के दो और छंद हैं।

(1) हाकलि छंद विधान – हाकलि छंद मानव जाति का 14 मात्रिक छंद है। इसमें दो चौकल भगण और दीर्घांत रहता है। इसका मात्रा विन्यास 4*2 211S है। हाकलि छंद का मेरा एक मुक्तक देखें:-

“सदियों तक यह अश्रु बहा,
रघुवर का वनवास सहा,
मंदिर की अब नींव पड़ी,
सारा भारत झूम रहा।”

(2) सखी छंद विधान – सखी छंद मानव जाति का 14 मात्रिक छंद है। यह दो चौकल द्विकल और अंत में दो दीर्घ वर्ण से बनता है। इसका मात्रा विन्यास 4*2 2SS है। सखी छंद का मेरा एक मुक्तक देखें:-

“सावन की हरियाली है,
शोभा अति मतवाली है,
भ्रमरों की गूंजन छायी,
चहुँ दिशि में खुशियाली है।”
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बासुदेव अग्रवाल नमन
तिनसुकिया
26.09.20

Monday, October 5, 2020

ग़ज़ल (परंपराएं निभा रहे हैं)

 बह्र:- 12122*2

परंपराएं निभा रहे हैं।
खुशी से जीवन बिता रहे हैं।

रिवाज, उत्सव हमारे न्यारे,
उमंग से वे मना रहे हैं।

अनेक रंगों के पुष्प से खिल,
वतन का उपवन सजा रहे हैं।

हृदय में सौहार्द्र रख के सबसे,
हो मग्न कोयल से गा रहे हैं।

बताते औकात उन को अपनी,
हमें जो आँखें दिखा रहे हैं।

जो देख हमको जलें, उन्हें तो,
जला के छाई बना रहे हैं।

जो खा के लातों को समझे बातें,
तो कस के उन को जमा रहे हैं।

जगत को संदेश शान्ति का हम,
सदा से देते ही आ रहे हैं।

'नमन' हमारा स्वभाव ऐसा,
गले से रिपु भी लगा रहे हैं।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
06-09-20

ग़ज़ल (रोग या कोई बला है)

बह्र:- 2122*2

रोग या कोई बला है,
जिस में नर से नर जुदा है।

हाय कोरोना की ऐसी,
बंद नर घर में पड़ा है।

दाव पर नारी की लज्जा,
तंत्र का चौसर बिछा है।

हो नशे में चूर अभिनय,
रंग नव दिखला रहा है।

खुद ही अपनी खोदने में,
आदमी जड़ को लगा है।

आज मतलब के हैं रिश्ते,
कौन किसका अब सगा है।

लेखनी मुखरित 'नमन' कर,
हाल बदतर देश का है।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
01-09-20

Saturday, October 3, 2020

हरिणी छंद "राधेकृष्णा नाम-रस"

मन नित भजो, राधेकृष्णा, यही बस सार है।

इन रस भरे, नामों का तो, महत्त्व अपार है।।

चिर युगल ये, जोड़ी न्यारी, त्रिलोक लुभावनी।

भगत जन के, प्राणों में ये, सुधा बरसावनी।।

जहँ जहँ रहे, राधा प्यारी, वहीं घनश्याम हैं।

परम द्युति के, श्रेयस्कारी, सभी परिणाम हैं।।

बहुत महिमा, नामों की है, इसे सब जान लें।

सब हृदय से, संतों का ये, कहा सच मान लें।।


अति व्यथित हो, झेलूँ पीड़ा, गिरा भव-कूप में।

मन विकल है, डूबूँ कैसे, रमा हरि रूप में।।

भुवन भर में, गाथा गाऊँ, सदा प्रभु नाम की।

मन-नयन से, लीला झाँकी, लखूँ ब्रज-धाम की।।


मन महँ रहे, श्यामा माधो, यही अरदास है।

जिस निलय में, दोनों सोहे, वहीं पर रास है।।

युगल छवि की, आभा में ही, लगा मन ये रहे।

'नमन' कवि की, ये आकांक्षा, इसी रस में बहे।।

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लक्षण छंद: (हरिणी छंद)


मधुर 'हरिणी', राचें बैठा, "नसामरसालगे"।

प्रथम यति है, छै वर्णों पे, चतुष् फिर सप्त पे।


"नसामरसालगे" = नगण, सगण, मगण, रगण, सगण, लघु और गुरु।

111  112,  222  2,12  112  12

चार चरण, दो दो समतुकांत।

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बासुदेव अग्रवाल 'नमन'

तिनसुकिया

03-10-20

Friday, September 25, 2020

विविध मुक्तक -3

हाल अब कैसा हुआ बतलाएँ क्या,
इस फटी तक़दीर का दिखलाएँ क्या,
तोड़ के रख दी कमर मँहगाई ने,
क्या खिलाएँ और खुद हम खाएँ क्या।

2122*2  212
********

हाउडी मोदी की तरंग में:-

विश्व मोदी को कह हाउडी पूछता,
और इमरान बन राउडी डोलता,
तय है पी ओ के का मिलना कश्मीर में,
शोर ये जग में हो लाउडी गूँजता।

212*4
********

आज का सूरज बड़ा है,
हो प्रखर नभ में अड़ा है,
पर बहुत ही क्षीण मानव,
कूप में तम के पड़ा है।

2122*2
*******

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
06-10-19

पुछल्लेदार मुक्तक "खुदगर्ज़ी नेता"

सत्ता जिनको मिल जाती है मद में वे इतराते हैं,
गिरगिट जैसे रंग बदलकर बेगाने बन जाते हैं,
खुद को देखें या फिर दल को या केवल ही अपनों को,
अनदेखी जनता की कर वे तोड़ें उनके सपनों को।

समझें जनता को वे ना भोली,
झूठे वादों की देवें ना गोली,
ये किसी की न है हमजोली,
'बासु' नेताओं आँखें खोलो,
नब्ज़ जनता की पहले टटोलो।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
22-04-18


Sunday, September 20, 2020

गुर्वा (पीड़ा)

अत्याचार देख भागें,

शांति शांति चिल्लाते,

छद्म छोड़ अब तो जागें।

***


पीड़ा सारी कहता,

नीर नयन से बहता,

अंधी दुनिया हँसती।

***


बाढ कहीं तो सूखा है,

सिसक रहे वन उजड़े,

मनुज लोभ का भूखा है,

***


बासुदेव अग्रवाल 'नमन'

तिनसुकिया

28-04-20

Wednesday, September 16, 2020

ग्रंथि छंद (गीतिका, देश का ऊँचा सदा, परचम रखें)

2122 212, 2212

देश का ऊँचा सदा, परचम रखें,
विश्व भर में देश-छवि, रवि सम रखें।

मातृ-भू सर्वोच्च है, ये भाव रख,
देश-हित में प्राण दें, दमखम रखें।

विश्व-गुरु भारत रहा, बन कर कभी,
देश फिर जग-गुरु बने, उप-क्रम रखें।

देश का गौरव सदा, अक्षुण्ण रख,
भारती के मान को, चम-चम रखें।

आँख हम पर उठ सके, रिपु की नहीं,
आत्मगौरव और बल, विक्रम रखें।

सर उठा कर हम जियें, हो कर निडर,
मूल से रिपु-नाश का, उद्यम रखें।

रोटियाँ सब को मिलेंं, छत भी मिले,
दीन जन की पीड़ लख, दृग नम रखें।

हम गरीबी को हटा, संपन्न हों,
भाव ये सारे 'नमन', उत्तम रखें।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
09-08-20

Wednesday, September 9, 2020

दोहे (श्राद्ध-पक्ष)

दोहा छंद

श्राद्ध पक्ष में दें सभी, पुरखों को सम्मान।
वंदन पितरों का करें, उनका धर हम ध्यान।।

रीत सनातन श्राद्ध है, इस पर हो अभिमान।
श्रद्धा पूरित भाव रख, मानें सभी विधान।।

द्विज भोजन बलिवैश्व से, करें पितर संतुष्ट।
उनके आशीर्वाद से, होते हैं हम पुष्ट।।

पितर लोक में जो बसे, कर असीम उपकार।
बन कृतज्ञ उनका सदा, प्रकट करें आभार।।

मिलता हमें सदा रहे, पितरों का वरदान।
भरें रहे भंडार सब, हों हम आयुष्मान।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
01-09-20