Saturday, September 24, 2022

विविध मुक्तक -10

जिनको गले लगाया हमने, अक्सर गला दबाये वे।
जिनकी खुशियाँ लख हम पुलके, बारंबार रुलाये वे।
अच्छाई का सारा ठेका, हमने सर पर लाद लिया।
अपनी मक्कारी से लेकिन, बाज़ कभी ना आये वे।।

(लावणी छंद आधारित)
***   ***

इतनी क्यों बेरुखी दिखाओ तुम,
आँख से आँख तो मिलाओ तुम,
खुद की नज़रों से तो गिरा ही हूँ,,
अपनी नज़रों से मत गिराओ तुम।

(21221 212 22)
***  ***

मेरी उजड़ी ये दुनिया बसा कौन दे,
गुल महब्बत के इसमें खिला कौन दे,
तिश्नगी बढ़ रही सब समुंदर उधर,
बनके दरिया इसे अब बुझा कौन दे।

(212*4)
***  ***

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
25-07-22

Sunday, September 18, 2022

छंदा सागर (छंद के घटक "वर्ण")

पाठ - 02


"छंदा सागर" ग्रन्थ

(छंद के घटक "वर्ण")

इस छंदा-सागर ग्रन्थ की रचना हिन्दी में प्रचलित वर्णिक, मात्रिक और वाचिक स्वरूप के छंदों को एक एक छंदा के रूप में पिरो कर आपके कर कमलों में प्रस्तुत करने के लिए की गयी है। छंदा वर्ण, गुच्छक और विभिन्न संकेतकों का एक विशिष्ट क्रम होती है जिसमें किसी एक छंद के पद की पूर्ण संरचना, मात्रा क्रम  और स्वरूप छिपा रहता है। छंद मात्राओं या वर्णों के विशिष्ट क्रम पर आधारित 2 से 6 पद की काव्यात्मक संरचना होती है। इस विशिष्ट क्रम के तीन घटक हैं जिनका नाम क्रमशः वर्ण, गुच्छक और छंदा दिया गया है। अब हम एक एक कर हर घटक का विस्तृत अध्ययन करेंगे। इस पाठ में हम प्रथम घटक 'वर्ण' का अध्ययन करने जा रहे हैं।

वर्ण :- हमारे इस विधान की लघुतम मूल इकाई 'वर्ण' के नाम से जानी जाती है। दो मूल वर्ण लघु और गुरु हैं जो कि एक वर्णी हैं तथा इनके मेल से हमें चार और द्विवर्णी वर्ण प्राप्त होते हैं। इस प्रकार इस नयी अवधारणा में कुल वर्ण 6 हैं।

अब आगे हम एक एक वर्ण का स्वरूप देखने जा रहे हैं :-

(1) लघु वर्ण: मात्रा =1; संकेत = ल या ला तथा 1 की संख्या।
अ, इ, उ, ऋ और इन स्वरों से युक्त समस्त व्यंजन और शब्द के आदि में आया संयुक्त वर्ण जैसे प्र स्व त्र क्ष आदि लघु मात्रिक होते हैं। जैसे - भृगु, तुम, रस में दोनों लघु हैं, प्रकृति, कमल में तीनों लघु हैं। अनुनासिक (चन्द्र बिंदु) से युक्त व्यंजन भी लघु होता है जैसे हँसना में हँ, मुँह में मुँ आदि।

(2) गुरु वर्ण: मात्रा = 2; संकेत = ग या गा तथा 2 की संख्या।
आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, अनुस्वार और विसर्ग से युक्त समस्त व्यंजन गुरु होते हैं। संयुक्त वर्ण अपने आप में गुरु नहीं होता पर यह यदि शब्द के मध्य या अंत में हो तो इसके पूर्व का लघु गुरु हो जाता है या गुरु है तो गुरु ही रहता है। जैसे अस्त में अ, कक्ष में क, रिश्ता में रि, नाश्ता में ना आदि। इसके कुछ अपवाद भी हैं। अल्प प्राण वर्ण जो पाँच वर्ग के प्रथम और तृतीय अक्षर होते हैं उनमें 'ह' का संयोग होने से उनका महाप्राण रूप ख, घ, फ आदि के रूप में अलग वर्ण हैं जो वर्ग के द्वितीय और चतुर्थ अक्षर होते हैं। किंतु न, म और ल में ह का योग होने से अलग से अक्षर नहीं है। अतः लिखा तो न्ह, म्ह, ल्ह जाता है परन्तु शब्द में उसके पहले आये लघु को गुरुत्व प्राप्त नहीं होता जैसे तुम्हारा में तु, कन्हाई में क, मल्हार में म आदि। स में ह के योग के लिए श वर्ण है। य र में ह के योग का कोई शब्द ही नहीं है। इसमें भी उच्चारण के अनुसार कहीं कहीं अपवाद हैं। यो यौ से युक्त संयुक्त वर्ण से पहले आये लघु को भी गुरुत्व प्राप्त नहीं होता। जैसे कह्यो में क को सुन्यो में सु को।

वाचिक स्वरूप की छंदाओं में जब एक ही शब्द में दो लघु साथ साथ हों जैसे कि तुम, क-लश, मन-भा-वन आदि तो उन्हें गुरु वर्ण माना जाता है। इस उदाहरण में तुम, लश, मन, वन गुरु वर्ण हैं। इन्हें हम शास्वत दीर्घ कहते हैं। इन छंदाओं में यह शास्वत दीर्घ 2 स्वतंत्र लघु से भिन्न है। जैसे रूप छटा के प और छ दो स्वतंत्र लघु हैं जबकि पछताना में पछ मिलकर गुरु वर्ण है।

इन दो मूल वर्णों के संभावित योग से हमें 4 युग्म वर्ण प्राप्त होते हैं। मैने उनको भी वर्ण के अंतर्गत ही रखा है। उनका नामकरण भी उनकी संरचना के आधार पर ही किया गया है। ये चार युग्म वर्ण निम्न हैं:-

(3) इलगा वर्ण: मात्रा = 3; संकेत - लि या ली तथा 12- लघु वर्ण में गुरु वर्ण के संयोग से यह युग्म वर्ण बनता है। जैसे दया, कलश, खिला आदि। 

दो मूल वर्णों में गुरु वर्ण का संयोग उन वर्णों में 'ई' कार जोड़ के दर्शाया जाता है। जैसे लि, ली या गि, गी। 'इलगा' नाम में 'इ' संकेतक स्वर है तथा 'लगा' लघु गुरु वर्ण का द्योतक है।

(4) ईगागा वर्ण: मात्रा = 4; संकेत - गि या गी तथा 22- दो गुरु वर्ण का संयोग ईगागा वर्ण कहलाता है। यह युग्म वर्ण है। इसके उदाहरण हलचल, बरछी, पावन, कोई आदि हैं। यह दो शास्वत दीर्घ, शास्वत दीर्घ तथा गुरु, गुरु तथा शास्वत दीर्घ, या दो गुरु इन चार रूप में से किसी भी रूप में हो सकता है। वर्णिक स्वरूप में ईगागा वर्ण दो गुरु के रूप में रहता है, जैसे स्वामी, भाला आदि। वर्णिक में गुरु वर्ण को दो लघु में नहीं तोड़ा जा सकता।

(5) ऊलल वर्ण: मात्रा = 1+1; संकेत = लु या लू तथा 11-
'ऊलल' भी युग्म वर्ण है जो दो लघु के संयोग से बनता है। वाचिक स्वरूप की छंदाओं में ये दोनों लघु स्वतंत्र लघु होते हैं जो एक शब्द में साथ साथ नहीं हो सकते। एक शब्द में 2 लघु साथ होने से वह गुरु वर्ण माना जाता है जो शास्वत दीर्घ कहलाता है। एक शब्द में 'ऊलल' वर्ण तभी हो सकता है जब ऐसे एक या दोनों लघु की मात्रा, पतन के नियमों के अंतर्गत गिराई जाए। जैसे- हमें में ह और में को दो स्वतंत्र लघु के रूप में माना जा सकता है। बात बने' में त और ब स्वतंत्र लघु हैं और दोनों मिलकर 'ऊलल' वर्ण बनाते हैं; जबकि तब के यही त और ब मिलकर गुरु वर्ण है। मात्रिक और वर्णिक छंदों में स्वतंत्र लघु की अवधारणा नहीं है और इन छंदों में ऊलल वर्ण दो सामान्य लघु के रूप में ही प्रयुक्त होता है।

दो मूल वर्णों में लघु वर्ण का संयोग उन वर्णों में 'ऊ' कार जोड़ के दर्शाया जाता है। जैसे लु, लू या गु, गू। 'ऊलल' नाम में 'ऊ' संकेतक स्वर है तथा 'लल' दो लघु वर्ण का द्योतक है।

(6) ऊगाल वर्ण: मात्रा = 3; संकेत = गु या गू तथा 21- गुरु में लघु के संयोग से यह त्रिमात्रिक युग्म वर्ण बनता है। श्याम, राम, चन्द्र, भव्य, रात आदि इसके उदाहरण हैं।

संकेत के अनुसार वर्ण सारणी:-
ल, ला= 1 (लघु)
ग, गा = 2 (गुरु)
लि, ली = 12 (इलगा)
गि, गी = 22 (ईगागा)
लु, लू = 11 (ऊलल)
गु, गू = 21 (ऊगाल)

गुरु लघु की आदि और अंत की स्थिति के अनुसार वर्णों के चार भेद हैं। हर भेद में तीन तीन वर्ण हैं।
गुर्वादि वर्ण :- 2, 21, 22
लघ्वादि वर्ण :- 1, 11, 12
गुर्वंत वर्ण :- 2, 12, 22
लघ्वंत वर्ण :- 1, 11, 21

इस प्रकार कुल छह वर्णों में लघु और गुरु दो मूल वर्ण हैं तथा इन दोनों मूल वर्ण के संभावित संयोग से हमें चार द्वि वर्णी वर्ण प्राप्त होते हैं जो युग्म वर्ण कहलाते हैं। इनमें इलगा और ऊगाल दो वर्ण त्रिमात्रिक हैं। ये दोनों ही त्रिकल के अंतर्गत आते हैं जिसकी पूर्ण जानकारी कल आधारित पाठ में दी जायेगी। बाकी ऊलल में दो स्वतंत्र लघु हैं और ईगागा में दोनों गुरु वर्ण हैं। स्वतंत्र लघु की अवधारणा केवल वाचिक स्वरूप की छंदाओं में है। मात्रिक और वर्णिक में लघु सदैव सामान्य लघु रहते हैं।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन' ©
तिनसुकिया

Monday, September 12, 2022

श्री साम्ब शिवार्पण मस्तु

रजनी   का   क्रूर विकट   क्रंदन
प्रतिपद      प्राणों का अवमंंदन
निर्देशक    कर     बैठा    मंचन।

नयनों    से       बहती  अश्रुधार
ज्वाला      की  लपटें   आरपार
सति का शव, शिव ने लिया धार।

मन  में  कौंधे   कुत्सित  विचार
माया   विमुग्ध, बनता    कहार
भावो   का  सरित, अजस्र धार।

मै   प्रलयंकर,     मैं   महाकाल
मैं रूद्र   परम्, मैं  प्रखर ज्वाल
मेरा   स्वरूप, क्रोधित   कराल।

मैं जगविजयी, मैं    जगकारण
मुझसे   डरते , सुर, नर, रावण
मैं    ही   सृष्टा, पालक,  तारण।

संरक्षित  यदि नहीं रही  सुसति
जग    देखे अब अपनी कुगति
फल  कैसी  पाती    है  कुमति।

तांडव  आतुर  अब   जगन्नाथ
प्रेतादिक  सब अब हुए   साथ
जग होना चाहे  अब    अनाथ।

ब्रह्मादिक  सुर  सब हुए  मौन
जगरक्षण, उतरे कहो    कौन
संस्तब्ध प्रकृति यह निखिल भौन।

हरि  ने  तब   एक  उपाय  किया
अतिलघु स्वरूप निज धार लिया
निज  चक्र सहित कटुघूँट   पिया।

उस समय   यज्ञभू डोल उठी
कुपित शिवा मुख खोल उठी
गणदल के हृदय हबोल उठी।

उस  समय वहाँ प्रलयानल  था
रण  आतुर   भूतों का दल  था
अज डरा, मनस में जो मल था।

भृगु   का सर मुंडित हुआ वहाँ
माता   का   घातक, दुष्ट  कहाँ
हर  और  मुंड  थे, यहाँ    वहाँ।

ब्रह्मा  का    शिर   ले  वीरभद्र 
रोये  और  नाचे, तनिक    मद्र
अब कौन  कहे  वे  सूक्त  भद्र।

भैरव  ने    नृत्य  कराल  किया
अज   माथहीन  तत्काल किया
पदतल अपने, वह भाल किया।

हर  ओर  मचा  था   कोलाहल
मानों दाहक  सा   खुला  गरल
बस त्राहि त्राहि कहता सुरदल। 

तब    विश्वंभर  विकराल  हुए
सब गण तत्क्षण नतभाल हुए
जब रक्षक   ही जगकाल  हुए। 

सब नष्ट भ्रष्ट कर  वह अध्वर
गूँजा वह क्रोधित  कटुकस्वर
अब सत्य करो, सब कुछ नश्वर। 

सति  अंग उठा    कर विश्वभंर
बढ़ चले, प्रबल   माया के स्वर
तारक  गण छोड़ चले  अंबर। 

पदतल   का  दुर्दम   घमघमाट
कुपित  कालिका    रक्त   चाट
शोणित सरिता के खड़ी  घाट। 

तब हरि ने अद्भुत किया कृत्य
देखा हर का वह प्रलय   नृत्य 
सति देह प्रविष्टित बने   भृत्य। 

शनै     शनै    कट  रहे   अंग
मानो   कटता  वह   मोहसंग
पार्थिव तन   होता  है  अनंग। 

पावन   वसुधा   होती  जाती
शक्तीपीठ, वर      से    पाती
जग को अद्भुत अनुपम थाती।

इक्कावन  अंग   विदेह   हुए
संबंध  तनिक से  खेह    हुए
अब शिथिल देह के स्नेह हुए।

मन में स्वात्म पद का परिचय
निर्भाव निरंतर     का   संचय
मिटता  जाता  है मोह  अमय।

शिव  के मन में उठते   विचार
कहती सति ही, निज रूप धार
प्रभु   क्षमा, यह   दुख  असार।

मैं   देह  नहीं, जो  छिन   जाऊँ
प्रिय   प्राणेश्वर, मैं   गुण   गाऊँ
फल नाथ, अवज्ञा  का     पाऊँ।

हे   आत्म  मेरे, मैं    सदा   संग
तन का  ही तो बस, हुआ  भंग
सादर अर्पित. पर, मनस   अंग।

तब   जाग उठा अद्भुत   विराग
माया   निद्रा  का    हुआ  त्याग
और जागे जगती     के  सुभाग।
*******************

उचित समयक्रम जान कर, हरि सम्मुख नत माथ।
कहा रोकिए यह प्रलय, माया प्रेरित नाथ।।

मेरी सति, कह रो पड़े, महाकाल योगीश।
विनय सहित कहने लगे, आप्त वचन जगदीश।।

सभी खेल प्रारब्ध के, संचित वा क्रियमाण।
होना ही था नाथ यह, निश्चित महाप्रयाण।।

पंचभूत मय देह का, अंत सुनिश्चित तात।
तव नियुक्त इस मृत्यु को, करना पड़ता घात।।

हे अनादि, इस शोक का, अब हो उपसंहार।
क्षमादान का दीजिए, हम सब को उपहार।।

यह सुन हो आत्मस्थ शिव, करने लगे विचार।
अरे, मोह का हो गया, कैसा आज प्रहार।।

शव तो शव है सति कहाँ, क्यों और कैसा मोह।
माया मुझ पर व्यापती, ज्यों सूरज पर कोह।।

भोले तत्क्षण हँस पड़े, बाजा डमरू नाद।
जय मायापति आपकी, हुआ सुखद संवाद।।

शेष देह को कर दिया, अग्न्यापर्ण शुभकृत्य।
देख ठठाकर हँस पड़े, भैरवादि सब भृत्य।।

भस्म हो रहे देह को, देख सोचते ईश।
सत्य जगत का है यही, पक्का बिस्वा बीस।।

यही सोच मलने लगे, निज अंगों पर खेह।
जगी परमशिव चेतना, जागे, हुए विदेह।।

भावमुग्ध गतक्षोभ अब, हुए सुखद शुभ शांत।
नृत्य मधुर करने लगे, लय थी अद्भुत कांत।।
******************

खेल रहे शिवशंकर होरी (गीत)


खेल रहे शिवशंकर होरी
भस्म गुलाल मले अंगहिँ, गणदल संग बहोरी।

चेत गई सब सुप्त चितायें, अगन बढ़ी घनघोरी।
तेहि महुँ ज्वालमाल से नाचें, देखो आज अघोरी।
खेल रहे शिवशंकर होरी।

विषय, काम, अरू क्रोध, भावना की जलती है होरी
भस्म उठाय कहे बाबाजी, सब प्रपंच झूठो री।
खेल रहे शिवशँकर होरी।

भूत प्रेत सब संग हो लिये, नागमुखी है कमोरी। 
विष की धार छूटती जिससे, अद्भुत रंग जम्यो री। 
खेल रहे शिवशंकर होरी। 

विष्णु मृदंग बजावन हारे, ध्रुवपद राग उठ्यो री।
ताल देत हैं ब्रह्मा संग में, नृत्यत नाथ, अहो री।।
खेल रहे शिवशंकर होरी। 
जो गावे यह शिव की होरी, ताँसों काम डर्यो री। 
दास गोबिंदो विनय करत है, जय जय नाथ अघोरी। 
खेल रहे शिवशंकर होरी।

    
          सुप्रभात पटल
        जय गोविंद शर्मा 
             लोसल

Sunday, September 11, 2022

सार छंद "रजनी"

सार छंद / ललितपद छंद

श्यामल अम्बर में सजधज के, लो रजनी भी आयी।
जगत स्वयंवर में जयमाला, तम की ये लहरायी।।
सन्ध्या ने अभिवादन करने, सुंदर थाल सजाया।
रक्तवर्ण परिधान पहन कर, मंगल स्वर बिखराया।।

सांध्य जलद भी हाथ बांधकर, खड़ा हुआ स्वागत को।
दबा रखा है अभिवादन की, वह अपनी चाहत को।।
सुंदर सन्ध्या का पाकर शुभ, गौरवपूर्ण निमन्त्रण।
प्राची से उतरी वह भू का, करने हेतु निरीक्षण।।

तारों भरी ओढ़ के चुनरी, मधुर यामिनी उतरी।
अंधकार की सैना ले कर, तेज भानु पर उभरी।।
प्यारा चंदा सजा रखा है, भाल तिलक में अपने।
विस्तृत नभ से आयी जग को, देने सुंदर सपने।।

निद्रा रानी के आँचल से, आच्छादित जग कर ली।
दिन भर की पीड़ा थकान की, सकल जीव से हर ली।।
निस्तब्धता घोर है छायी, रजनी का अब शासन।
जग समेट के कृष्ण वस्त्र में, निशा जमायी आसन।।


बासुदेव अग्रवाल 'नमन' ©
तिनसुकिया
17-04-2016

Wednesday, September 7, 2022

सुगम्य गीता (द्वितीय अध्याय 'द्वितीय भाग')

द्वितीय अध्याय (भाग -२)

नष्ट न करे प्रयत्न ये, होय न कुछ प्रतिकूल। 
स्वल्प साधना बुद्धि की, हरे मृत्यु की शूल।।२६।। 

एक बुद्धि इस योग में, निश्चित हो कर रहती। 
अस्थिर मन में बुद्धि की, कई तरंगें बहती।।२७।। मुक्तामणि छंद

इच्छाओं में चूर जो, करके शास्त्र सहायी। 
कर्म करे ठहरा उचित, निम्न भोग फल दायी।।२८।। मुक्तामणि छंद

त्रिगुणाश्रित फल वेद दे, ऊँचा उठ तू पार्थ। 
चाह न कर अप्राप्य की, रहे प्राप्य कब साथ।।२९।। 

चित्त लगा उस नित्य में, जो जल-पूर्ण तड़ाग। 
गड्ढों से बाहर निकल, क्षुद्र कामना त्याग।।३०।। 

कर्म सदा अधिकार में, फल न तुम्हारे हाथ। 
त्यज तृष्णा फल-हेतु जो, त्यज न कर्म का साथ।।३१।। 

सफल-विफल में सम रहो, ये समता ही योग। 
योगास्थित हो कर्म कर, तृष्णा का त्यज रोग।।३२।। 

बुद्धि-योग बिन कर्म सब, निम्न कोटि के जान। 
आश्रय ढूँढो बुद्धि में, दीन फलाशा मान।।३३।। 

पाप-पुण्य के फेर से, बुद्धि-युक्त है मुक्त। 
समता से ही कर्म सब, होते कौशल युक्त।।३४।। 

बुद्धि मुक्त जब मोह के, होती झंझावात से। 
मानव मन न मलीन हो, सुनी सुनाई बात से।।३५।। उल्लाला छंद

कर्मों से फल प्राप्त जो, बुद्धि-युक्त त्यज कर उसे।
जन्म-मरण से मुक्त हो, परम धाम में जा बसे।।३६।। उल्लाला छंद

भाँति भाँति के सुन वचन, भ्रमित बुद्धि जो पार्थ।
थिर जब हो वह आत्म में, मिले योग का साथ।।३७।। 

क्या लक्षण, बोले, चले, बैठे जो थिर प्रज्ञ। 
चार प्रश्न सुन पार्थ के, बोले स्वामी यज्ञ।।३८।। 

मन की सारी कामना, त्यागे नर जिस काल। 
तुष्ट स्वयं में जो रहे, थिर-धी बिरला लाल।।३९।। 

सुख में कोउ न लालसा, दुःख न हो उद्विग्न। 
राग क्रोध भय मुक्त जो, वो नर थिर-धी मग्न।।४०।। 

स्नेह-रहित सर्वत्र जो, मिले शुभाशुभ कोय। 
प्रीत द्वेष उपजे नहीं, नर वो थिर-धी होय।।४१।। 

विषय-मुक्त कर इन्द्रियाँ, कच्छप जैसे अंग। 
हर्षित मन थिर-धी रहे, आशु-बुद्धि के संग।।४२।। 

इन्द्रिय संयम से भले, होते विषय निवृत्त, 
सूक्ष्म चाह फिर भी रहे, मिटे तत्त में चित्त।।४३।। 

बहुत बड़ी बलवान, पीड़ादायी इन्द्रियाँ। 
यत्नशील धीमान, का भी मन बल से हरे।।४४।। सोरठा छंद 

मेरे आश्रित बैठ, वश कर सारी इन्द्रियाँ। 
जिसकी मुझ में पैठ, थिर-मति जग उसको कहे।।४५।। सोरठा छंद

विषय-ध्यान आसक्ति दे, फिर ये बाढ़े कामना। 
पूर्ण कामना हो न जब, हुवे क्रोध से सामना।।४६।। उल्लाला छंद

मूढ़ चित्त हो क्रोध से, उससे स्मृति-भ्रम होय फिर।
बुद्धि-नाश भ्रम से हुवे, अंत पतन के गर्त गिर।।४७।। उल्लाला छंद

राग द्वेष से जो रहित, इन्द्रिय-जयी प्रवीन। 
विषय-भोग उपरांत भी, चिरानन्द में लीन।।४८।। 

धी-अयुक्त में भावना, का है सदा अभाव। 
शांति नहीं इससे मिले, मिटे न भव का दाव।।४९।। 

मन जिस इन्द्रिय में रमे, वही हरे फिर बुद्धि। 
उस अयुक्त की फिर कहो, किस विध मन की शुद्धि।।५०।। 

अतः महाबाहो उसे, थिर-धी नर तुम जान। 
जिसने अपनी इन्द्रियाँ, वश कर राखी ठान।।५१।। 

जो सबकी है रात, संयमी उस में जागे। 
जिसमें जागे लोग, निशा लख साधु न पागे।।५२।। रोला छंद 

सागर फिर भी शांत, समाती नदियाँ इतनी। 
निर्विकार त्यों युक्त, कामना घेरें जितनी।।५३।। रोला छंद

सभी कामना त्याग, अहम् अभिलाषा ममता।
विचरै जो स्वच्छंद, शांति अरु पाता समता।।५४।। रोला छंद 

ये ब्राह्मी स्थिति पार्थ, पाय नर हो न विमोहित। 
सफल करे वो अंत, ब्रह्म में होय समाहित।।५५।। रोला छंद 

सुगम्य गीता इति द्वितीय अध्याय (भाग -२)

बासुदेव अग्रवाल 'नमन' तिनसुकिया (दिनांक 14-4-2017 से प्रारम्भ और 17 -4-2017 को समापन)



Saturday, September 3, 2022

गंग छंद "गंग धार"

गंग छंद

गंग की धारा।
सर्व अघ हारा।।
शिव शीश सोहे।
जगत जन मोहे।।

पावनी गंगा।
करे तन चंगा।।
नदी वरदानी।
सरित-पटरानी।।

तट पे बसे हैं।
तीरथ सजे हैं।।
हरिद्वार काशी।
सब पाप नाशी।।

ऋषिकेश शोभा।
हृदय की लोभा।।
भक्त गण आते।
भाग्य सरहाते।।

तीर पर आ के।
मस्तक झुका के।।
पितरगण  सेते।
जलांजलि देते।।

मंदाकिनी माँ।
अघनाशिनी माँ।।
भव की तु तारा।
'नमन' शत बारा।।
***********

गंग छंद विधान -

गंग छंद 9 मात्रा प्रति चरण का सम मात्रिक छंद है जिसका अंत गुरु गुरु (SS) से होना आवश्यक है। यह आँक जाति का छंद है। एक छंद में कुल 4 चरण होते हैं और छंद के दो दो या चारों चरण सम तुकांत होने चाहिए। इन 9 मात्राओं का विन्यास पंचकल + दो गुरु वर्ण (SS) हैं। पंचकल की निम्न संभावनाएँ हैं :-

122
212
221
(2 को 11 में तोड़ सकते हैं, पर अंत सदैव दो गुरु (SS) से होना चाहिए।)
******************

बासुदेव अग्रवाल 'नमन' ©
तिनसुकिया
25-05-22

Friday, August 26, 2022

सुगम्य गीता (द्वितीय अध्याय 'प्रथम भाग')

 द्वितीय अध्याय (भाग -१)

मृत या मरणासन्न पर, आह नहीं पण्डित भरे।
शोक-योग्य दोनों नहीं, बात ज्ञानियों सी करे।।१।।
उल्लाला छंद

तुम मैं या ये भूप सब, वर्तमान हर काल में। 
रहने वाले ये सदा, आगे भी हर हाल में।।२।। उल्लाला छंद

तीन अवस्था देह को, जैसे होती प्राप्त। 
देही को तन त्यों मिले, मोह हृदय क्यों व्याप्त।।३।। 

आते जाते ही रहें, विषयों के संयोग। 
सहन करो सम भाव से, सुख-दुख योग-वियोग।।४।। 

सुख-दुख में जो सम रहे, होय विषय निर्लिप्त।
पार करे आवागमन, मोक्ष-अमिय से तृप्त।।५।। 

सत की सत्ता सर्वदा, असत न स्थाई होय। 
तत्त्वों के इस सार को, सके न लख हर कोय।।६।। 

अविनाशी उसको समझ, जिससे यह सब व्याप्त।
शाश्वत अव्यय नाश को, कभी न होता प्राप्त।।७।। 

परे प्रमाणों से सखा, आत्म तत्त्व को जान। 
देह असत सत आतमा, करो युद्ध मन ठान।।८।। 

मरे न ये मारे कभी, षट छूये न विकार। 
नित शाश्वत अज अरु अमर, इसको सदा विचार।।९।। 

नये वस्त्र पहने यथा, लोग पुराने छोड़। 
देही नव तन से तथा, नाता लेता जोड़।।१०।। 

कटे नहीं ये शस्त्र से, जला न सकती आग। 
शुष्क पवन से ये न हो, जल की लगे न लाग।।११।। 

शोक करो तुम त्यक्त, इस विध लख इस आत्म को। 
अविकारी अव्यक्त, चिंतन पार न पा सके।।१२।। सोरठा छंद

मन में लो यदि धार, जन्म मरण धर्मी इसे। 
फिर भी करो विचार, शोभनीय क्या शोक यह।।१३।। सोरठा छंद

जन्म बाद मरना अटल, पुनर्जन्म त्यों जान। 
मान इसे त्यज शोक को, नर-वश ये न विधान।।१४।। 

प्रकट न ये नृप आदि में, केवल अभी समक्ष।
होने वाले लुप्त ये, फिर क्यों भीगे अक्ष।।१५।। 

कहे सुने देखे इसे, ज्ञानी अचरज मान। 
सुन कर भी कुछ मोह में, इसे न पाये जान।।१६।। 

आत्म तत्त्व हर देह का, नित अवध्य है पार्थ। 
मोह त्याग निर्द्वन्द्व हो, कैसा नाता स्वार्थ।।१७।। 

क्षत्रिय का सबसे बड़ा, धर्म-युद्ध है कर्म। 
धर्म दुहाई व्यर्थ है, युद्ध तुम्हारा धर्म।।१८।। 

भाग्यवान तुम हो बड़े, स्वयं मिला जो युद्ध। 
स्वर्ग-द्वार को मोह से, करो न तुम अवरुद्ध।।१९।। 

युद्ध-विमुखता पार्थ ये, करे कीर्ति का नाश। 
क्षात्र-धर्म के त्याग से, मिले पाप की पाश।।२०।। 

अर्जित तूने कर रखा, जग में नाम महान। 
होगी जब आलोचना, नहीं रहे वो मान।।२१।। 

रण-कौशल तेरा रहा, सदा सूर्य सा दिप्त। 
उसमें ग्रहण लगा रहे, भय में हो कर लिप्त।।२२।। 

मृत्यु मिले या जय मिले, उभय लाभ के काज।
एक स्वर्ग दे दूसरा, भू मण्डल का राज।।२३।। 

हार-जीत सुख-दुःख को, एक बराबर मान। 
युद्ध करो सब त्याग कर, पाप पुण्य का भान।।२४।। 

आत्मिक विषयक सांख्य का, अबतक दीन्हा ज्ञान। 
बुद्धि-योग अब दे तुझे, कर्म-बन्ध से त्रान।।२५।। 

सुगम्य गीता इति द्वितीय अध्याय (भाग -१)

बासुदेव अग्रवाल 'नमन' तिनसुकिया (दिनांक 11-4-2017 से प्रारम्भ और 14 -4-2017 को समापन)


Monday, August 22, 2022

32 मात्रिक छंद "शारदा वंदना"

कलुष हृदय में वास बना माँ,
श्वेत पद्म सा निर्मल कर दो ।
शुभ्र ज्योत्स्ना छिटका उसमें,
अपने जैसा उज्ज्वल कर दो ।।

शुभ्र रूपिणी शुभ्र भाव से,
मेरा हृदय पटल माँ भर दो ।
वीण-वादिनी स्वर लहरी से,
मेरा कण्ठ स्वरिल माँ कर दो ।।

मन उपवन में हे माँ मेरे,
कविता पुष्प प्रस्फुटित होंवे ।
मन में मेरे नव भावों के,
अंकुर सदा अंकुरित होंवे ।।

माँ जनहित की पावन सौरभ,
मेरे काव्य कुसुम में भर दो ।
करूँ काव्य रचना से जग-हित,
'नमन' शारदे ऐसा वर दो ।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन' ©
तिनसुकिया
08-05-2016



Tuesday, August 16, 2022

छंदा सागर (छंद और घटक)

पाठ - 01

"छंदा सागर" ग्रन्थ

(छंद और घटक)

मात्रा या वर्ण की निश्चित संख्या, ह्रस्व स्वर और दीर्घ स्वर की विभिन्न आवृत्ति, यति, गति तथा अन्त्यानुप्रास के नियमों में आबद्ध पद्यात्मक इकाई छंद कहलाता है। ह्रस्व स्वर के उच्चारण में जितना समय लगता है दीर्घ स्वर के उच्चारण में उसका दुगुना समय लगता है। इसी उच्चारण की विभिन्नता से अनेकानेक छंद का सृजन होता है जिनकी अपनी अपनी लय होती है। छंदों में ह्रस्व स्वर की एक मात्रा गिनी जाती है जिसे लघु के नाम से जाना जाता है। इसे 1 की संख्या से भी प्रकट किया जाता है। दीर्घ स्वर की दो मात्रा होती है जिसे गुरु के नाम से जाना जाता है और 2 की संख्या से भी प्रकट किया जाता है।

उपरोक्त नियमों की विभिन्नता से अनेक लय का निर्माण होता है, जिनके आधार पर अनेकानेक छंद का निर्माण होता है। पदांत में केवल एक लघु की वृद्धि कर देने से ही छंद की लय, गति में अंतर आ जाता है और वह छंद का एक अलग भेद हो जाता है। संरचना, लक्षण और किसी छंद में काव्य सृजन के नियमों के आधार पर प्रस्तुत ग्रन्थ में छंदों को तीन वर्गों में रखा गया है।

1- वर्णिक छंद:- वर्णिक छंद उसे कहा जाता है जिसके प्रत्येक पद में वर्णों का क्रम तथा वर्णों की संख्या नियत रहती है। जब लघु गुरु का क्रम और उनकी संख्या निश्चित है तो मात्रा स्वयंमेव सुनिश्चित है। वर्णिक छंद की रचना में उस के वर्णों के क्रम का सम्यक ज्ञान और पद के मध्य की यति या यतियों का ज्ञान होना ही पर्याप्त है। वर्णिक छंदो में रचना करने के लिए ह्रस्व या दीर्घ मात्रा के अनुसार केवल शब्द चयन आवश्यक है। जैसे - मेरी "सुमति छंद" की रचना का एक उदाहरण देखें जिसका वर्ण विन्यास- 111 212 111 122 है। 

"प्रखर भाल पे हिमगिरि न्यारा।
बहत वक्ष पे सुरसरि धारा।।
पद पखारता जलनिधि खारा।
अनुपमेय भारत यह प्यारा।।"

रचना के हर चरण में ठीक 12 वर्ण हैं। वर्णिक छंदों में छंद के ह्रस्व दीर्घ के क्रम से कहीं भी च्युत नहीं हुआ जा सकता।

2- मात्रिक छंद:- मात्रिक छंद के पद में वर्णों की संख्या और वर्णों का क्रम निर्धारित नहीं रहता है परंतु मात्रा की संख्या निर्धारित रहती है। फिर भी हिन्दी में वर्णिक छंदों की अपेक्षा मात्रिक छंदों का प्रचलन अधिक है। मात्रिक छंदों की लय भी बहुत  मधुर तथा लोचदार होती है। यह लय केवल मात्राओं के बंधन से नहीं आती बल्कि उन मात्राओं को भी एक निश्चित क्रम में सजाने से प्राप्त होती है। मात्राओं के इस निश्चित क्रम का आधार है कल संयोजन। अधिकांश छंद समकल अर्थात द्विकल, चतुष्कल, षटकल, अठकल आदि पर आधारित रहते हैं परन्तु कई छंद में केवल विषम कल भी रहते हैं या समकलों के मध्य विषम कलों का भी समावेश रहता है। इस ग्रन्थ में आगे एक पूरा पाठ ही कलों पर है जिसमें कलों की पूर्ण विवेचना की गई है। कलों के अतिरिक्त कई मात्रिक छंद वर्ण-गुच्छक पर भी आधारित रहते हैं या कई छंदों के पदांत में वर्ण-गुच्छक रह सकता है। गुच्छक के पाठ में गुच्छक की संपूर्ण संरचना और विवेचना समाहित है। वर्ण गुच्छक में लघु गुरु का क्रम सुनिश्चित रहता है परंतु मात्रिक छंदों में गुरु को दो लघु में तोड़ा जा सकता है जबकि यह छूट वर्णिक छंदों में नहीं है। मेरी एक चौपाई का उदाहरण देखें जिसके प्रत्येक चरण में 16 मात्रा आवश्यक है।

"भोले की महिमा है न्यारी।
औघड़ दानी भव-भय हारी।।
शंकर काशी के तुम नाथा।
रखो शीश पर हे प्रभु हाथा।।"

उदाहरण के चरणों में वर्ण संख्या क्रमशः 9, 11, 10, 11 है। पर मात्रा हर चरण में 16 एक समान है। और लय सधी हुई है।

3- वाचिक स्वरूप:- वर्तमान में हिंदी में वाचिक स्वरूप में सृजन करने का प्रचलन तेजी से बढ़ता जा रहा है। वाचिक का स्वरूप तो वर्णिक है पर इसके सृजन में न तो वर्णों की संख्या का बंधन है और न ही मात्राओं का। इसमें उच्चारण की प्रमुखता है और इस आधार पर गुरु को दो लघु में भी तोड़ा जा सकता है और कहीं कहीं गुरु वर्ण को लघु रूप में भी लिया जा सकता है जिस पर ऐसे छंदों के आवंटित पाठ में प्रकाश डाला जायेगा। वाचिक में रचे गये मेरे एक मुक्तक का उदाहरण जिसकी मापनी (221  1222)*2 है।

"पहचान ले' नारी तू, ताकत जो' छिपी तुझ में,
कारीगरी' उसकी जो, सब ही तो' सजी तुझ में,
मंजिल न को'ई ऐसी, तू पा न सके जिसको,
भगवान दिखे उसमें, ममता जो' बसी तुझ में।"

रचना में चिन्हित कई स्थान पर दीर्घाक्षरों का लघुवत् उच्चारण है।

उपरोक्त तीन वर्ग के आधार पर छंद के एक पद में प्रयुक्त लघु गुरु के निश्चित क्रम को दिग्दर्शित करने के लिए इस ग्रन्थ में अष्ट गणों के आधार पर नवीन अवधारणा ली गयी है। इस नवीन अवधारणा के तीन घटक हैं जो क्रमशः वर्ण, गुच्छक और छंदा के नाम से परिभाषित किये गये हैं। लघु, गुरु और लघु गुरु के मेल से बने चार द्विवर्णी वर्ण ले कर कुल छह वर्ण हैं, यगण आदि आठ गण हैं, गण में इन वर्णों के संयोग से गणक बनते हैं। ये गण और गणक सम्मिलित रूप में गुच्छक कहलाते हैं। गुच्छक और वर्णों के मेल से छंदा बनती है। छंदा के अनुसार काव्य रचना करने से छंद का एक पद पूर्ण हो जाता है। द्विपदी छंद में ऐसे दो पद रचे जाते हैं और चतुष्पदी छंद में चार पद।

आगे के पाठों में एक एक घटक की पूर्ण विवेचना की जायेगी, छंदाओं में प्रयुक्त विशेष संकेतक के लिए एक अलग से पाठ है। एक पाठ कल विवेचन का है और उसके बाद विविध छंदाओं के वर्गीकृत पाठ हैं। हर छंदा का उस छंदा में प्रयुक्त गुच्छक और संकेतक के आधार पर एक नाम है जिसमें उस छंदा के पूरे विधान का समावेश है। इस पूरे विधान का इस प्रकार निर्माण किया गया है कि छंदा का नाम संक्षिप्त हो और उच्चारण में सरल हो जिससे कि उसे याद रखने में सरलता हो। जिसने भी इस विधान को समझ लिया है वह छंदा का नाम सामने आते ही छंद के पूरे पद की रचना आसानी से कर सकता है। विधान भी बहुत तर्कसंगत बनाया गया है जिससे कि उसे समझने में भी आसानी हो और स्मरण रखना भी सरल हो। मुझे पूर्ण आशा है कि हिन्दी के काव्य सृजकों को इस ग्रन्थ से बहुत सहायता मिलेगी।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन' ©
तिनसुकिया
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Sunday, August 14, 2022

उज्ज्वला छंद "हल्दीघाटी"

 उज्ज्वला छंद

कुल सिसोदिया की आन को।
सांगा के कुल के मान को।।
ले जन्मे वीर प्रचंड वे।
राणा प्रताप मार्तंड वे।।

मेवाड़ी गुण की खान थे।
कुंभलगढ़ के वरदान थे।।
मुगलों के काल कराल वे।
क्षत्रिय वीरों के भाल वे।।

अकबर की आज्ञा को लिये।
जब मान सिंह हमला किये।।
हल्दीघाटी का युद्ध था।
हर क्षत्री योद्धा क्रुद्ध था।।

फिर तो राणा खूंखार थे।
झट चेतक पर असवार थे।।
रजपूती सेना साथ ले।
रण का बीड़ा वे हाथ ले।।

हल्दीघाटी में आ डटे।
अरि दल पर बिजली से फटे।।
फिर रुण्ड मुण्ड कटने लगे।
ज्यों शिव तांडव करने जगे।।

चेतक चण्डी सा हो पड़ा।
अरि सिर पर आ होता खड़ा।।
राणा झट रिपु सिर काटते।
भू कटे माथ से पाटते।।

यह घोर युद्ध चलता रहा।
यवनों का बल लुटता रहा।।
कर मस्तक उच्च अरावली।
गाये रण की विरुदावली।।

माटी का कण कण गा रहा।
यह अमर युद्ध सबसे महा।।
जो त्यजा धरा हित प्रान को।
शत 'नमन' प्रताप महान को।।
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उज्ज्वला छंद विधान -

उज्ज्वला छंद 15 मात्रा प्रति पद का सम मात्रिक छंद है। यह तैथिक जाति का छंद है। एक छंद में कुल 4 चरण होते हैं और छंद के दो दो या चारों चरण सम तुकांत होने चाहिए। इन 15 मात्राओं की मात्रा बाँट:- द्विकल + अठकल + S1S (रगण) है। द्विकल में 2 या 11 रख सकते हैं तथा अठकल में 4 4 या 3 3 2 रख सकते हैं।
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन' ©
तिनसुकिया
09-06-22

Tuesday, August 9, 2022

ग़ज़ल (नेकियों का आजकल मिलता)

 बह्र:- 2122  2122  2122  212

नेकियों का आजकल मिलता सिला कुछ भी नहीं,
ये जमाने का चलन है कर गिला कुछ भी नहीं।

दूर उनसे हैं बहुत ही जी रहे पर सोच यह,
जब तलक वे दिल में बसते फ़ासिला कुछ भी नहीं।

घूम आवारा कटें दिन और फुटपाथों पे शब,
ज़ीस्त का सुख आज तक हमको मिला कुछ भी नहीं।

आप आयें तो महक उट्ठेगा उजड़ा गुलसिताँ,
मुद्दतों से इस चमन में है खिला कुछ भी नहीं।

खाना, पीना, उठना, सोना सब ही बेतरतीब अब,
दूर वे जब से गये हैं सिलसिला कुछ भी नहीं।

चाहे कोई युग हो पुरुषों की अना के सामने,
द्रौपदी, सीता, अहिल्या, उर्मिला कुछ भी नहीं।

चंद साँसें साथ हैं बस पर 'नमन' कुछ कर दिखा,
यूँ तो लम्बी राह में ये काफ़िला कुछ भी नहीं।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
07-01-2019

Thursday, August 4, 2022

अरिल्ल छंद "सावन"

अरिल्ल छंद / डिल्ला छंद


सावन की शोभा है अनुपम।
रिमझिम की छायी है छमछम।।
नभ में काले बादल छायें।
तृषित धरा की प्यास बुझायें।।

मोर पपीहा शोर मचायें।
वर्षा की ये आस जगायें।।
कूक रही बागों में कोयल।
रसिक हृदय में करती हलचल।।

बाग बगीचों में हरियाली।
खिली हुई तरु की हर डाली।।
झूलों का हर ओर धमाका।
घर घर में है धूम धड़ाका।।

सावन की नित नवल तरंगें।
मन में भरतीं मृदुल उमंगें ।।
छटा प्रकृति की है यह न्यारी।
'नमन' हृदय इस पर बलिहारी।।
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अरिल्ल छंद विधान -

अरिल्ल छंद 16 मात्रा प्रति चरण का सम मात्रिक छंद है। यह संस्कारी जाति का छंद है। एक छंद में कुल 4 चरण होते हैं और छंद के दो दो या चारों चरण सम तुकांत होने चाहिए। यह छंद भी पादाकुलक परिवार का ही एक छंद है। प्रति चरण चार चौकल के अतिरिक्त अरिल्ल छंद में चरणांत की बाध्यता है। यह चरणांत दो लघु (11) या यगण (1SS) का हो सकता है। इस प्रकार अरिल्ल छंद की मात्रा बाँट:- 4*3 211 या 4*2 3 1SS सिद्ध होती है। 3 1SS को 211 SS भी कर सकते हैं।

भानु कवि के छंद प्रभाकर में पादाकुलक छंद के प्रकरण में इससे मिलते जुलते कई छंदों की सोदाहरण व्याख्या की गयी है। यहाँ मैं अरिल्ल छंद से मिलता जुलता एक और छंद उदाहरण सहित प्रस्तुत कर रहा हूँ। ।

डिल्ला छंद विधान - डिल्ला छंद संस्कारी जाति का 16 मात्रिक छंद है। इसमें चार चौकल के अतिरिक्त चरणांत भगण (S11) से होना चाहिए।
अरिल्ल छंद में भी चरणांत में दो लघु मान्य हैं परंतु भगण की बाध्यता नहीं है। इस प्रकार डिल्ला छंद का हर चरण अरिल्ल छंद में भी मान्य रहता है परंतु अरिल्ल छंद के चरण का डिल्ला छंद का चरण होना आवश्यक नहीं। डिल्ला छंद की मात्रा बाँट:- 4*3 S11 है।

डिल्ला छंद 'सावन'


रिमझिम करता आया सावन।
रसिक जनों का मन हरषावन।।
उमड़ घुमड़ के छाये बादल।
विरहणियों को करते घायल।।

धरणी से फूटे नव अंकुर।
बोल रहें दादुर हों आतुर।।
महिना सावन का है पावन।
सबका प्यारा ये मनभावन।।
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन' ©
तिनसुकिया
14-06-22

Saturday, July 30, 2022

किशोर छंद "किशोर मुक्तक"

 किशोर छंद (मुक्तक - 1)

एक आसरो बचग्यो थारो, बालाजी।
बेगा आओ काम सिकारो, बालाजी।
जद जद भीड़ पड़ी भकताँ माँ, थे भाज्या।
दोराँ दिन सें आय उबारो, बालाजी।।

किशोर छंद (मुक्तक - 2)

भारी रोग निसड़्लो आयो, कोरोना,
सगलै जग मैं रुदन मचायो, कोरोना,
मिनखाँ नै मिनखाँ सै न्यारा, यो कीन्यो,
कुचमादी चीन्याँ रो जायो, कोरोना।
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किशोर छंद विधान -

किशोर छंद मूल रूप सें एक मात्रिक छंद है जिसमे चार पद समतुकांत होते हैं । प्रत्येक पद में 22 मात्राएँ होती हैं। यति 16 व 6 मात्राओं पर होती है। यदि तीसरे पद को भिन्न तुकांत कर दें तो यही 'किशोर मुक्तक' में परिवर्तित हो जाता है।

इसमें चरणांत मगण 222 से हो तो यह और भी सुंदर हो जाता है।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
5-11-17

Tuesday, July 26, 2022

मुक्तक "बचपन"

कहाँ बचपन सुहाना छोड़ आया।
वो खुल हँसना हँसाना छोड़ आया।
नहीं कुछ फ़िक्र तब होती थी मन में।
कहाँ आलम पुराना छोड़ आया।।

(1222 1222 122)
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हमको ये मालूम नहीं है, किस्मत हमरी क्यों फूटी है,
जीवन जीने की आशाएँ, बचपन से ही क्यों टूटी है,
सड़कों पर कागज हम बीनें, हँस कर के तुम पढ़ते लिखते,
बसने से ही पहले दुनिया, किसने हमरी यूँ लूटी है।

(22×4//22×4)
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
20-12-18

Tuesday, July 19, 2022

गिरिधारी छंद "दृढ़ संकल्प"

खुद पे रख यदि विश्वास चलो।
जग को जिस विध चाहो बदलो।।
निज पे अटल भरोसा जिसका।
यश गायन जग में हो उसका।।

मत राख जगत पे आस कभी।
फिर देख बनत हैं काम सभी।।
जग-आश्रय कब स्थायी रहता।
डिगता जब मन पीड़ा सहता।।

मन-चाह गगन के छोर छुए।
नहिं पूर्ण हृदय की आस हुए।।
मन कार्य करन में नाँहि लगे।
अरु कर्म-विरति के भाव जगे।।

हितकारक निज का संबल है।
पर-आश्रय नित ही दुर्बल है।।
मन में दृढ़ यदि संकल्प रहे।
सब वैभव सुख की धार बहे।।
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गिरिधारी छंद विधान -

"सनयास" अगर तू सूत्र रखे।
तब छंदस 'गिरिधारी' हरखे।।

"सनयास" = सगण, नगण, यगण, सगण।
112  111  122  112 = 12 वर्ण का वर्णिक छंद। चार चरण, दो दो समतुकांत।
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन' ©
तिनसुकिया
8-1-17