Friday, September 6, 2019

ग़ज़ल (बोलना बात का भी मना है)

बह्र:- 2122   122   122

बोलना बात का भी मना है,
साँस को छोड़ना भी मना है।

दहशतों में सभी जी रहे हैं,
दर्द का अब गिला भी मना है।

ख्वाब देखे कभी जो सभी ने,
आज तो सोचना भी मना है।

जख्म गहरे सभी सड़ गये हैं,
खोलना घाव का भी मना है।

सब्र रोके नहीं रुक रहा अब,
बाँध को तोड़ना भी मना है।

हो गई ख़त्म सहने की ताक़त,
करना उफ़ का ज़रा भी मना है।

अब नहीं है 'नमन' का ठिकाना,
आशियाँ ढूंढना भी मना है।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
13-11-16

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