Wednesday, March 4, 2020

ग़ज़ल (आपने जो पौध रोपी)

बह्र:- 2122  2122  2122  212

आपने जो पौध रोपी वो शजर होने को है,
देश-हित के फैसलों का अब असर होने को है।

अब तलक तय जो सफ़र की ख़ार ही उसमें मिले,
आपके साये में अब आसाँ डगर होने को है।

अपना समझा था जिन्हें उनके दिये ही ज़ख्मों की,
दिल कँपाती दास्ताँ सुन आँख तर होने को है।

नफ़रतों के और दहशतगर्दी के इस दौर में,
देखिए इंसान कैसे जानवर होने को है।

देश को जो तोड़ने का ख्वाब देखें, जान लें,
औ' नहीं उनका यहाँ पर अब गुज़र होने को है।

जो पड़े हैं नींद में अब भी गुलामी की, सुनें,
जाग जाओ अब तो यारो दोपहर होने को है।

बेकरारी की अँधेरी रात में तड़पा 'नमन',
ज़िंदगी में अब मुहब्बत की सहर होने को है।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
22-01-17

गज़ल (पाएँ वफ़ा के बदले)

बह्र:- 221  2121  1221  212

पाएँ वफ़ा के बदले जफ़ाएँ तो क्या करें,
हर बार उनसे चोट ही खाएँ तो क्या करें।

हम ख्वाब भी न दिल में सजाएँ तो क्या करें,
उम्मीद जीने की न जगाएँ तो क्या करें।

बन जाते उनके जख़्म की मरहम, कोई दवा,
हर जख़्म-ओ-दर्द जब वे छिपाएँ तो क्या करें।

महफ़िल में अज़नबी से वे जब आये सामने,
अब मुस्कुराके भूल न जाएँ तो क्या करें।

चाहा था उनकी याद को दिल से मिटा दें हम,
रातों की नींद पर वे चुराएँ तो क्या करें।

लाखों बलाएँ सर पे हमारे हैं या ख़ुदा,
कुछ भी असर न करतीं दुआएँ तो क्या करें।

हम अम्न और चैन को करते सदा 'नमन',
पर बाज ही पड़ौसी न आएँ तो क्या करें।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
23-02-18

ग़ज़ल (बुरा न मानो होली है)

बह्र: 1212 1212, 1212 1212

ये नीति धार के रहो, बुरा न मानो होली है,
कठोर घूँट पी हँसो, बुरा न मानो होली है।

मिटा के भेदभाव सब, सभी से ताल को मिला,
थिरक थिरक के नाच लो, बुरा न मानो होली है।

मुसीबतों की आँधियाँ, झझोड़ के तुम्हें रखे,
पहाड़ से अडिग बनो, बुरा न मानो होली है।

विचार जातपांत का, रिवाज और धर्म का,
मिटा के जड़ से तुम कहो, बुरा न मानो होली है।

परंपरा सनातनी, हमारे दिल में ये बसी,
कोई मले गुलाल तो, बुरा न मानो होली है।

बुराइयाँ समेट सब, अनल में होली की जला,
गले लगा भलाई को, बुरा न मानो होली है।

ये पर्व फाग का अजब, मनाओ मस्त हो इसे,
कहे 'नमन' सभी सुनो, बुरा न मानो होली है।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
28 - 02 - 2020

Monday, February 24, 2020

मौक्तिका (बचपन जो खो गया)

2*9 (मात्रिक बहर)
(पदांत 'गया', समांत 'ओ' स्वर)

जिम्मेदारी में बढ़ी उम्र की,
बचपन वो सुहाना गुम हो गया।
चुगते चुगते अनुभव के दाने,
अल्हड़पन मेरा कहीं खो गया।।

तब कुछ चिंता थी न कमाने की,
और फिक्र ही थी न गमाने की।
अब कम साधन औ' अधिक खर्च का,
हौवा ये मन का चैन धो गया।।

अब तो कुछ भी करने से पहले,
भला बुरा विचार के दिल दहले।
आशंकाओं की लेता झपकी,
बचपन का साहस प्रखर सो गया।।

तब आशाओं का पीछा करते,
सपने पूरे करने को मरते।
पहले से ही असफलता का भय,
सुस्ती के अब तो बीज बो गया।।

तब कुछ सपने होते थे पूरे,
रह जाते हैं सब आज अधूरे।
यादों में घुटने को नहीं 'नमन',
वो लौट न सकता समय जो गया।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
02-07-2016

मौक्तिका (छाँव)

बहर:-  2122   2122   2122   212
(पदांत का लोप, समांत 'अर')

जिंदगी जीने की राहें मुश्किलों से हैं भरी,
चिलचिलाती धूप जैसा जिंदगी का है सफर।।
हैं घने पेड़ों के जैसे इस सफर में रिश्ते सब,
छाँव इनकी जो मिले तो हो सहज जाती डगर।।

पेड़ की छाया में जैसे ठण्ड राही को मिले,
छाँव में रिश्तों के त्यों गम जिंदगी के सब ढ़ले।
कद्र रिश्तों की करें कीमत चुकानी जो पड़े,
कौन रिश्ते की दुआ ही कब दिखा जाए असर।।

भाग्यशाली वे बड़े जिन पर किसी की छाँव है,
मुख में दे कोई निवाला पालने में पाँव है।
पूछिए क्या हाल उनका सर पे जिनके छत नहीं,
मुफलिसी का जिनके ऊपर टूटता हर दिन कहर।।

छाँव देने जो तुम्हें हर रोज झेले धूप को,
खुद तो काले पड़ तुम्हारे पर निखारे रूप को।
उनके उपकारों को जीवन में 'नमन' तुम नित करो,
उनकी खातिर कुछ भी करने की नहीं छोड़ो कसर।।


बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
12-05-2017

Sunday, February 16, 2020

मत्तगयंद सवैया "वृथा जन्म"

7 भगण (211) की आवृत्ति के बाद 2 गुरु

बालक जन्म लियो जब से तब से जननी उर से चिपक्यो है।
होय जवान गयो जब वो तिय के रस में दिन रैन रम्यो है।
वृद्ध भयो परिवार बँद्यो अरु पुत्र प्रपुत्रन नेह पग्यो है।
'बासु' कहे सब आयु गयी पर मूढ़ कभी नहिं राम भज्यो है। 

बासुदेव अग्रवाल नमन
तिनसुकिया
20-11-2018

मनहरण घनाक्षरी "गीता महिमा"

हरि मुख से जो झरी, गीता जैसी वाणी खरी,
गीता का जो रस पीता, होता बेड़ा पार है।

ज्ञान-योग कर्म-योग, भक्ति-योग से संयोग,
गीता के अध्याय सारे, अमिय की धार है।

कर्म का संदेश देवे, शोक सारा हर लेवे,
एक एक श्लोक या का, भाव का आगार है।

शास्त्र की निचोड़ गीता, सहज सरल हिता,
पंक्ति पंक्ति रस भरी, शब्द शब्द सार है।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
29-07-17

प्रजातन्त्र (कुण्डलिया)

चक्की के दो पाट सा, प्रजातन्त्र का तंत्र।
जनता उनमें पिस जपे, अच्छे दिन का मंत्र।
अच्छे दिन का मंत्र, छलावा आज बड़ा है।
कैसा सत्ता हाथ, हाय ये शस्त्र पड़ा है।
नेताओं को फ़िक्र, मौज उनकी हो पक्की।
रहें पीसते लोग, भले जीवन भर चक्की।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
23-04-18

दोहा छंद (गिल्ली डंडा)

दोहा छंद

गिल्ली डंडा खेलते, बच्चे धुन में मस्त।
जग की चिंता है नहीं, होते कभी न पस्त।।

भेद नहीं है जात का, भेद न करता रंग।
ऊँच नीच मन में नहीं, बच्चे खेले संग।।

आस पास को भूल के, क्रीड़ा में तल्लीन।
बड़ा नहीं कोई यहाँ, ना ही कोई हीन।।

छोड़ मशीनी जिंदगी, बच्चे सबके साथ।
हँसते गाते खेलते, डाल गले में हाथ।।

खुले खेत फैले यहाँ, नील गगन की छाँव।
मस्ती में बालक जहाँ, खेलें नंगे पाँव।।

नहीं प्रदूषण आग है, शहरों का ना शोर।
गाँवों का वातावरण, कर दे भाव-विभोर।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
19-11-2016

Wednesday, February 12, 2020

रोला छंद "बाल-हृदय"

भेदभाव से दूर, बाल-मन जल सा निर्मल।
रहे सदा अलमस्त, द्वन्द्व से होकर निश्चल।।
बालक बालक मध्य, नेह शाश्वत है प्रतिपल।
देख बाल को बाल, हृदय का खिलता उत्पल।।

दो बालक अनजान, प्रीत से झट बँध जाते।
नर, पशु, पक्षी भेद, नहीं कुछ आड़े आते।।
है यह कथा प्रसिद्ध, भरत नृप बालक जब था।
सिंह शावकों संग, खेलता वन में तब था।।

नई चीज को देख, प्रबल उत्कंठा जागे।
जग के सारे भेद, जानने पीछे भागे।।
चंचल बाल अधीर, शांत नहिं हो जिज्ञासा।
हर वह करे प्रयत्न, ज्ञान का जब तक प्यासा।।

बाल हृदय की थाह, बड़ी मुश्किल है पाना।
किस धुन में निर्लिप्त, किसी ने कभी न जाना।।
आसपास को देख, कभी हर्षित ये होता।
फिर तटस्थ हो बैठ, किसी धुन में झट खोता।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
17-02-2017

मधुशाला छंद "सरहदी मधुशाला"

रख नापाक इरादे उसने, सरहद करदी मधुशाला।
रोज करे वो टुच्ची हरकत, नफरत की पी कर हाला।
उठो देश के मतवालों तुम, काली बन खप्पर लेके।
भर भर पीओ रौद्र रूप में, अरि के शोणित का प्याला।।

सीमा पर अतिक्रमण करे नित, पहन शराफत की माला।
उजले तन वालों से मिलकर, करता वहाँ कर्म काला।
सुप्त सिंह सा जाग पड़ा तब, हिंद देश का सेनानी।
देश प्रेम की छक कर मदिरा, पी कर जो था मतवाला।।

जो अभिन्न है भाग देश का, दबा शत्रु ने रख डाला।
नाच रही दहशतगर्दों की, अभी जहाँ साकीबाला।
नहीं चैन से बैठेंगे हम, जब तक ना वापस लेंगे।
दिल में पैदा सदा रखेंगे, अपने हक की यह ज्वाला।।

सरहद पे जो वीर डटे हैं, गला शुष्क चाहें हाला।
दुश्मन के सीने से कब वे, भर पाएँ खाली प्याला।
सदा पीठ पर वार करे वो, छाती लक्ष्य हमारा है।
पक के अब नासूर गया बन, वर्षों का जो था छाला।।

गोली, बम्बों की धुन पर नित, जहाँ थिरकती है हाला।
जहाँ चले आतंकवाद का, झूम झूम करके प्याला।
नहीं रहेगी फिर वो सरहद, मंजर नहीं रहेगा वो।
प्रण करते हम भारतवासी, नहीं रहे वो मधुशाला।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
11-10-2016

 16-14 मात्रा पर यति अंत 22

श्रृंगार छंद "सुख और दुख"

सुखों को चाहे सब ही जीव।
बिना सुख के जैसे निर्जीव।।
दुखों से भागे सब ही दूर।
सुखों में रहना चाहें चूर।।

जगत के जो भी होते काज।
एक ही है उन सब का राज।।
लगी है सुख पाने की आग।
उसी की सारी भागमभाग।।

सुखों के जग में भेद अनेक।
दोष गुण रखे अलग प्रत्येक।।
किसी की पर पीड़न में प्रीत।
कई समझें सब को ही मीत।।

किसी की संचय में है राग।
बहुत से जग से रखे न लाग।।
धर्म में दिखे किसी को मौज।
पाप कोई करता है रोज।।

झेल दुख को जो भरते आह।
छिपी सुखकी उन सब में चाह।
जगत में कभी मान अपमान।
जान लो दोनों एक समान।।

कभी सुख कभी दुखों का साथ।
धैर्य का किंतु न छोड़ें हाथ।
दुखों की झेलो खुश हो गाज़।
इसी में छिपा सुखों का राज।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
01-08-2016

Monday, February 10, 2020

विमला छंद "सच्चा सुख"

मन का मारो रावण सब ही।
लगते सारे पावन तब ही।।
सब बाधाओं की मन जड़ है।
बस में ये तो वैभव-झड़ है।।

त्यज दो तृष्णा मत्सर मन से।
जग की सेवा लो कर तन से।।
सब का सोचो नित्य तुम भला।
यह जीने की उच्चतम कला।।

जग-ज्वाला से प्राण सिहरते।
पर-पीड़ा से लोचन भरते।।
लखता जो संसार बिलखता।
दुखियों का वो दर्द समझता।।

जग की पीड़ा जो नर हरता।
अबलों की रक्षा नित करता।।
सबके प्यासे नैन निरखता।
नर वो ही सच्चा सुख चखता।।
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लक्षण छंद:-

"समनालागा" वर्ण सब रखो।
'विमला' प्यारी छंद रस चखो।।

"समनालागा"= सगण मगण नगण लघु गुरु

112  222  111  12 = 11 वर्ण
चार चरण। दो दो समतुकांत
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
14-07-17

Wednesday, February 5, 2020

ग़ज़ल (घबराये हुए लोग हैं)

बह्र:- 221  1221  1221  122

घबराये हुए लोग हैं अनजाने से डर से,
हर एक बशर ख़ौफ़ ज़दा दूजे बशर से।

दूभर है यहाँ आज तो बाहर ही निकलना,
महफ़ूज़ नहीं कोई जमाने की नज़र से।

अनजानी डगर लगने लगी अब मुझे आसां,
जैसे ही पता मुझको चला जाना किधर से।

हम अपनी तरफ से तो बिछा बैठे हैं आँखें,
अब नज़रे इनायत भी तो हो थोड़ी उधर से।

कुछ ऐसा लगे नज़रें मिला दूर हों वे जब,
ज्यों चाँदनी शरमा के छिटक जाती क़मर से।

बेदर्द पिया जैसा तु क्यों अब्र बना है,
कब से ही लगा आस ज़मीं बैठी तु बरसे।

इतनी तु उठा ले ओ 'नमन' अपनी ख़ुदी को,
दुश्मन भी तेरा करने को यारी तेरी तरसे।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
26-07-19

गज़ल (जब तक जहाँ में उल्फ़त)

221  2121  1221  212

जब तक जहाँ में उल्फ़त-ए-अल्लाह-ओ-दीं रहे,
तब तक हमारे बीच में कायम यकीं रहे।

शुहरत हमारी गर कभी छूलें भी आसमाँ,
पाँवों तले सदा ही खुदा पर जमीं रहे।

यादों के जलजले में हुआ खंडहर मकाँ,
ऐ इश्क़ हम तो अब तेरे काबिल नहीं रहे।

दुनिया में हम रहें या नहीं भी रहें तो क्या,
आबाद पर हमारा सदा हमनशीं रहे।

दोनों जहाँ की नेमतें पल भर में वार दें,
सीने से लग के तुम सी अगर नाज़नीं रहे।

क़ातिल सफ़ेदपोश में हो फ़र्क़ किस तरह,
खूनी कटार पर ढ़की जब आस्तीं रहे।

बाकी बची है एक ही चाहत 'नमन' की अब,
बहता वतन के वास्ते अरक़-ए-जबीं रहे।

उल्फ़त-ए-अल्लाह-ओ-दीं = ईश्वर-प्रेम और धर्म
अरक़-ए-जबीं = ललाट का पसीना

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
23-11-17

ग़ज़ल (जीवन पथिक संसार में)

बह्र:- 2212*4

जीवन पथिक संसार में चलते चलो तुम सर्वदा,
राहों में आए कष्ट जो सहके चलो तुम सर्वदा।

अनजान सी राहें यहाँ मंजिल कहीं दिखती नहीं,
काँटों भरी इन राहों में हँसके चलो तुम सर्वदा।

बीते हुए से सीख लो आयेगा उस को थाम लो,
मुड़ के कभी देखो नहीं बढ़ते चलो तुम सर्वदा।

बहता निरंतर जो रहे गंगा सा निर्मल वो रहे,
जीवन में ठहरो मत कभी बहते चलो तुम सर्वदा।

मासूम कितने रो रहे अबला यहाँ नित लुट रही,
दुखियों के मन मन्दिर में रह बसते चलो तुम सर्वदा।

इस ज़िंदगी के रास्ते आसाँ कभी होते नहीं,
तूफान में भी दीप से जलते चलो तुम सर्वदा।

जो देश हित में प्राण दे सर्वस्व न्योछावर करे,
ऐसे इरादों को 'नमन' करते चलो तुम सर्वदा।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
20-10-2016

गीतिका (अभी तो सूरज उगा है)

प्रधान मंत्री मोदी जी की कविता की पंक्ति से प्रेरणा पा लिखी गीतिका।
(मापनी:- 12222  122)

अभी तो सूरज उगा है,
सवेरा यह कुछ नया है।

प्रखरतर यह भानु होता ,
गगन में बढ़ अब चला है।

अभी तक जो नींद में थे,
जगा उन सब को दिया है।

सभी का विश्वास ले के,
प्रगति पथ पर चल पड़ा है।

तमस की रजनी गयी छँट,
उजाला अब छा गया है।

उड़ानें यह देश लेगा,
सभी दिग में नभ खुला है।

भवन उन्नति-नींव पर अब,
शुरू द्रुत गति से हुआ है।

गया बढ़ उत्साह सब का,
कलेजा रिपु का हिला है।

'नमन' भारत का भरोसा,
सभी क्षेत्रों में बढ़ा है।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
06-06-2019

Wednesday, January 22, 2020

हाइकु (नव-दुर्गा)

शैलपुत्री माँ
हिम गिरि तनया
वांछित-लाभा।
**

ब्रह्मचारिणी
कटु तप चारिणी
वैराग्य दात्री।
**

माँ चन्द्रघण्टा
शशि सम शीतला
शांति प्रदाता।
**

देवी कूष्माण्डा
माँ ब्रह्मांड सृजेता
उन्नति दाता।
**

श्री स्कंदमाता
कार्तिकेय की माता
वृत्ति निरोधा।
**

माँ कात्यायनी
कात्यायन तनया
पुरुषार्थ दा।
**

कालरात्रि माँ
तम-निशा स्वरूपा
भय विमुक्ता।
**

माँ महागौरी
शुभ्र वस्त्र धारिणी
पाप नाशिनी।
**

माँ सिद्धिदात्री
अष्ट सिद्धि रूपिणी
कामना पुर्णी।
**

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
09-10-19

सायली (होली)

होली
पावन त्योहार
जीवन में लाया
रंगों की
बौछार।
*********

होली
जला देती
अत्याचार, कपट, छल
निष्पाप भक्त
बचाती।
*********

होली
लाई रंग
हों सभी लाल
खेलें पलाश
संग।
*********

होली
देती छेद
ऊँच नीच के
मन से
भेद।
**********

होली
बीस की
कोरोना की तूती
देश में
बोली।
**********

बासुदेव
रखे चाहना
पूरे ग्रूप को
होली की
शुभकामना।

*****
1-2-3-2-1 शब्द
*****

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
12-03-2017

क्षणिका (वृद्धाश्रम)

(1)

वृद्धाश्रम का
एक बूढ़ा पलास
जो पतझड़ में
ठूँठ बना
था बड़ा उदास!
तभी एक
वृद्ध लाठी टेकता
आया उसके पास
जो वर्षों से
रहा कर वहीं निवास,,,
उसे देता दिलासा, कहा
क्या मुझ से भी ज्यादा
तू है निराश??
अरे तेरा तो,,
आने वाला है मधुमास
पर मैं तो जी रहा
रख उस बसंत की आस....
जब इस स्वार्थी जग में
ले लूँगा आखिरी श्वास।
**
(2)

बद्रिकाश्रम में जा
प्रभु की माला जपना,
अमर नाथ
यात्रा का सपना
वृद्धाश्रम में
आ टूटा।


बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
01-03-19