इस ब्लॉग को “नयेकवि” जैसा सार्थक नाम दे कर निर्मित करने का प्रमुख उद्देश्य नये कवियों की रचनाओं को एक सशक्त मंच उपलब्ध कराना है जहाँ उन रचनाओं की उचित समीक्षा हो सके, साथ में सही मार्ग दर्शन हो सके और प्रोत्साहन मिल सके। यह “नयेकवि” ब्लॉग उन सभी हिन्दी भाषा के नवोदित कवियों को समर्पित है जो हिन्दी को उच्चतम शिखर पर पहुँचाने के लिये जी जान से लगे हुये हैं जिसकी वह पूर्ण अधिकारिणी है। आप सभी का इस नये ब्लॉग “नयेकवि” में हृदय की गहराइयों से स्वागत है।
Friday, December 4, 2020
एक हास्य ग़ज़ल (मूली में है झन्नाट जो)
ग़ज़ल (साथ सजन तो चाँद सुहाना)
ग़ज़ल (यादों के जो अनमोल क्षण)
Sunday, November 22, 2020
गुर्वा (प्रकृति-1)
विविध मुक्तक -4
मुक्तक (इंसान-2)
Sunday, November 15, 2020
जनहरण घनाक्षरी
कर्मठता (कुण्डलिया)
दोहा गीतिका (सम्मान)
Wednesday, November 11, 2020
32 मात्रिक छंद "हम और तुम"
पीयूष वर्ष छंद "वर्षा वर्णन"
शीर्षा छंद (शैतानी धारा)
Thursday, November 5, 2020
ग़ज़ल (जो गिरे हैं उन्हें हम उठाते रहे)
ग़ज़ल (रहे जो गर्दिशों में ऐसे अनजानों)
ग़ज़ल (कैसी ये मज़बूरी है)
Friday, October 23, 2020
पिरामिड (बूंद)
हाइकु (कोरोना)
Thursday, October 15, 2020
गुर्वा (प्रशासन)
कठिन बड़ा अब पेट भरण,
शरण कहाँ? केवल शोषण,
***
ले रहा जनतंत्र सिसकी,
स्वार्थ की चक्की चले,
पाट में जनता विवस सी।
***
चुस्त प्रशासन भी बेकार,
जनता सुस्त निकम्मी,
लोकतंत्र की लाचारी।
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
2-05-20
मौक्तिका (बालक)
(पदांत 'को जाने नहीं', समांत 'आन')
कितना मनोहर रूप पर अभिमान को जाने नहीं।।
पहना हुआ कुछ या नहीं लेटा किसी भी हाल में,
अवधूत सा निर्लिप्त जग के भान को जाने नहीं।।
मनमर्जियों का बादशाह किस भाव में खोने लगे।
कुछ भी कहो कुछ भी करो पड़ता नहीं इसको फ़रक,
ना मान को ये मानता सम्मान को जाने नहीं।।
किलकारियों की गूँज से श्रवणों में मधु-रस घोलता।
खिलवाड़ करता था अभी सोने लगा क्यों लाल अब,
नन्हा खिलौना लाडला चिपका रहे माँ से अगर,
मुट्ठी में जकड़ा सब जगत ना दीन दुनिया की खबर।
ममतामयी खोयी हुई खोया हुआ ही लाल है,
अठखेलियाँ बिस्तर पे कर उलटे कभी सुलटे कभी,
मासूमियत इसकी हरे चिंता फ़िकर झट से सभी।
खोया हुआ धुन में रहे अपने में हरदम ये मगन,
अपराध से ना वासता जग के छलों से दूर है,
मुसकान से घायल करे हर आँख का ये नूर है।
करता 'नमन' इस में छिपी भगवान की मूरत को मैं,
बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
10-08-2016
राजस्थानी हेली गीत (विरह गीत)
ओळ्यूँ आवै सारी रात।
हिया मँ उमड़ै काली कलायण म्हारी हेली!
मनड़ा रो मोर करै पिऊ पिऊ म्हारी हेली!
पिया मेघा ने दे पुकार।
सूखी पड्योरी बेल सींचो ये म्हारी हेली!
आखा तीजड़ गई सावण भी सूखो म्हारी हेली!
दिवाली घर ल्याई सून।
कटणो घणो है दोरो वैरी सियालो म्हारी हेली!
तनड़ो बिंधैगी पौ री पून।।
हिवड़ै में बळरी है आग।
सुणा दे संदेशो सैंया आवण रो म्हारी हेली!
जगा दे सोया म्हारा भाग।।
तिनसुकिया
09-12-2018