Saturday, April 10, 2021

पड़ोसन (कुण्डलिया)

हो पड़ोस में आपके, कोई सुंदर नार।
पत्नी करती प्रार्थना, साजन नैना चार।
साजन नैना चार, रात दिन गुण वो गाते।
सजनी नित श्रृंगार, करे सैंया मन भाते।
मनमाफिक यदि आप, चाहते सजनी हो तो।
नई पड़ोसन एक,  बसालो सुंदर जो हो।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
22-09-2016

दोहे (लगन)

दोहा छंद

मन में धुन गहरी चढ़े, जग का रहे न भान।
कार्य असम्भव नर करे, विपद नहीं व्यवधान।।

तुलसी को जब धुन चढ़ी, हुआ रज्जु सम व्याल।
मीरा माधव प्रेम में, विष पी गयी कराल।।

ज्ञान प्राप्ति की धुन चढ़े, कालिदास सा मूढ़।
कवि कुल भूषण वो बने, काव्य रचे अति गूढ़।।

ज्ञानार्जन जब लक्ष्य हो, करलें चित्त अधीन।
ध्यान ध्येय पे राखलें, लखे सर्प ज्यों बीन।।

आस पास को भूल के, मन प्रेमी में लीन।
गहरा नाता जोड़िए, ज्यों पानी से मीन।।

अंतर में जब ज्ञान का, करता सूर्य प्रकाश।
अंधकार अज्ञान का, करे निशा सम नाश।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
12-10-2016

राधेश्यामी छंद "शशिकला"

राधेश्यामी छंद / मत्त सवैया

रात्री देवी के आँगन में, जब गगन मार्ग से शशि जाता।
शीतल किरणों को फैला कर, यह शुभ्र ज्योत्स्ना है छाता।।
कर व्योम मार्ग को आलोकित, बढ़ता मयंक नभ-मंडल पे।
आनन से छिटका मुस्काहट, दिन जैसा करे धरा तल पे।।

खेले जब आंखमिचौली यह, प्यारे तारों से मिलजुल के।
बादल समूह के पट में छिप, रह जाये कभी कभी घुल के।।
लुकछिप कर कभी देखता है, रख ओट मेघ के अंबर की।
घूंघट-पट से नव वधु जैसे, निरखे छवि अपने मन-हर की ।।

चञ्चलता लिये नवल-शिशु सी, दिन प्रति दिन रूप बदलता है।
ले पूर्ण रूप को निखर कभी, हर दिन घट घट कर चलता है।।
रजनी जब सुंदर थाल सजा, इसका आ राजतिलक करती।
आरूढ़ गगन-सिंहासन हो, कर दे यह रजतमयी धरती।।

बुध तारागण के बैठ संग, यह राजसभा में अंबर की।
संचालन करे राज्य का जब, छवि देखे बनती नृप वर की।।
यह रजत-रश्मि को बिखरा कर, भूतल को आलोकित करता।
शीतल सुरम्य किरणों से फिर, दाहकता हृदयों की हरता।।

जो शष्य कनक सम खेतों का, पा रजत रश्मियों की शोभा।
वह हेम रजतमय हो कर के, छवि देता है मन की लोभा।।
धरती का आँचल धवल हुआ, सरिता-धारा झिलमिल करती।
ग्रामीण गेह की शुभ्रमयी, प्रांजल शोभा मन को हरती।।

दे मधुर कल्पना कवियों को, मृगछौना सा भोलाभाला।
मनमोहन सा प्यारा चंदा, सब के मन को हरने वाला।।
रजनी के शासन में करके, यह 'नमन' धरा अरु अम्बर को।
यह भोर-पटल में छिप जाता, दे कर पथ प्यारे दिनकर को।।


बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
21-05-2016

Monday, April 5, 2021

ग़ज़ल (आ गयी होली)

बह्र:- 2122 2122 2122 2

पर्वों में सब से सुहानी आ गयी होली,
फागुनी रस में नहाई आ गयी होली।

टेसुओं की ले के लाली आ गयी होली,
रंग बिखराती बसंती आ गयी होली।

देखिए अमराइयों में कोयलों के संग,
मंजरी की ओढ़ चुनरी आ गयी होली।

चंग की थापों से गुंजित फाग की धुन में,
होलियारों की ले टोली आ गयी होली।

दूर जो परदेश में हैं उनके भावों में,
याद अपनों की जगाती आ गयी होली।

होलिका के संग सारे हम जला कर भेद,
भंग पी लें देश-हित की आ गयी होली।

एकता के सूत्र में बँध हम 'नमन' झूमें,
प्रीत की अनुभूति देती आ गयी होली।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
22-3-21

ग़ज़ल (जब तलक उनकी करामात)

बह्र:- 2122 1122 1122 22

जब तलक उनकी करामात नहीं होती है,
आफ़तों की यहाँ बरसात नहीं होती है।

जिनकी बंदूकें चलें दूसरों के कंधों से,
उनकी खुद लड़ने की औक़ात नहीं होती है।

आड़ ले दोस्ती की भोंकते खंजर उनकी,
दोस्ती करने की ही जा़त नहीं होती है।

अब हमारी भी हैं नज़दीकियाँ उनसे यारो,
यार कहलाने लगे बात नहीं होती है।

राह चुनते जो सदाक़त की यकीं उनका यही,
इस पे चलने से कभी मात नहीं होती है।

वे भला समझेंगे क्या ग़म के अँधेरे जिनकी,
ग़म की रातों से मुलाक़ात नहीं होती है।

ऐसी दुनिया से 'नमन' दूर ही रहना जिस में,
चैन से सोने की भी रात नहीं होती है।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
18-07-2020

ग़ज़ल (झूठे रोज बहाना कर)

बह्र:- 22  22  22  2

झूठे रोज बहाना कर,
क्यों तरसाओ ना ना कर।

फ़िक्र जमाने की छोड़ो,
दिल का कहना माना कर।

मेटो मन से भ्रम सारे,
खुद को तो पहचाना कर।

कब तक जग भरमाओगे,
झूठे जोड़ घटाना कर।

चैन तभी जब सोओगे,
कुछ नेकी सिरहाना कर।

जग में रहना है फिर तो,
इस जग से याराना कर।

दुखियों का दुख दूर 'नमन',
कोशिश कर रोजाना कर।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन',
तिनसुकिया
3-1-19

Thursday, March 25, 2021

कजरी गीत (सावन रुत)

अरे रामा! सावन की रुत जी जलाये - 2
सखि मोहे सजना की याद सताये,
हाये सखि सजना की याद सताये।

कारे मेघा उमड़ डरायें,
अरे रामा मेघा डरायें!!!
कारे मेघा उमड़ डरायें,
देख बिजुरिया जी घबराये,
ऐसे में भर अंक सजनवा,
सखि भर अंक सजनवा,
अरे रामा छतिया से वे चिपकायें
सखि मोहे सजना की याद सताये।

खिली हुई प्यारी हरियाली,
हे रामा प्यारी हरियाली!!!
खिली हुई प्यारी हरियाली,
कूक रही कोयल मतवाली,
पर मेरे हैं दूर सजनवा,
हाय सखि दूर सजनवा,
अरे रामा रह रह जिया तड़पायें,
सखि मोहे सजना की याद सताये।

झूल रहीं बागों में सखियाँ,
अरे रामा बागों में सखियाँ!!!
झूल रहीं बागों में सखियाँ,
गायें कजरी मटका अँखियाँ,
सबके हैं घर में ही सजनवा,
हाय सखि घर में सजनवा,
अरे रामा मुझ को भी गीत सुनायें,
सखि मोहे सजना की याद सताये।

अरे रामा! सावन की रुत जी जलाये,
सखि मोहे सजना की याद सताये।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
31-08-20

मनहरण घनाक्षरी "होली के रंग"

(1)

होली की मची है धूम, रहे होलियार झूम,
मस्त है मलंग जैसे, डफली बजात है।

हाथ उठा आँख मींच, जोगिया की तान खींच,
मुख से अजीब कोई, स्वाँग को बनात है।

रंगों में हैं सराबोर, हुड़दंग पुरजोर,
शिव के गणों की जैसे, निकली बरात है।

ऊँच-नीच सारे त्याग, एक होय खेले फाग,
'बासु' कैसे एकता का, रस बरसात है।।

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(2)

फाग की उमंग लिए, पिया की तरंग लिए,
गोरी जब झूम चली, पायलिया बाजती।

बाँके नैन सकुचाय, कमरिया बल खाय,
ठुमक के पाँव धरे, करधनी नाचती।

बिजुरिया चमकत, घटा घोर कड़कत,
कोयली भी ऐसे में ही, कुहुक सुनावती।

पायल की छम छम, बादलों की रिमझिम,
कोयली की कुहु कुहु, पञ्च बाण मारती।।

****************
(3)

बजती है चंग उड़े रंग घुटे भंग यहाँ,
उमगे उमंग व तरंग यहाँ फाग में।

उड़ता गुलाल भाल लाल हैं रसाल सब,
करते धमाल दे दे ताल रंगी पाग में।

मार पिचकारी भीगा डारी गोरी साड़ी सारी,
भरे किलकारी खेले होरी सारे बाग में।

'बासु' कहे हाथ जोड़ खेलो फाग ऐंठ छोड़,
किसी का न दिल तोड़ मन बसी लाग में।।


बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
07-03-2017

Thursday, March 18, 2021

प्रणय निवेदन कर रहा

 चतुष्पदी

प्रणय निवेदन कर रहा,

करले तू स्वीकार,

प्यासा मन भटकै फिरै,

इस पर कर अधिकार।


मुक्तक (जवानी)

खुले नभ की ये छत हो सर पे सुहानी,
करे तन को सिहरित हवा की रवानी,
छुअन मीत की हो किसे फिर है परवाह,
कि बैठें हैं कैसे, यही तो जवानी।

(122*4)
***********

जवानी का मजा है
हसीनों की सजा है
मरें हर रोज इसमें
कहाँ ऐसी क़जा है।

(1222 122)
********

न ऐसी कभी जिंदगानी लगी,
न दुनिया ही इतनी सुहानी लगी,
मिली जबसे उनकी मुहब्बत हमें,
न ऐसी कभी ये जवानी लगी।

(122*3 12)
************

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
23-02-17

विविध मुक्तक -7

उचित सम्मान देने से यथा सम्मान मिलता है,
निरादर जो करे सबका उसे अपमान मिलता है,
न पद को देख दो इज्जत नहीं दो देख धन दौलत,
वृथा की वाहवाही से तो' बस अभिमान मिलता है।

(1222*4)
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खुदा के न्याय से बढ़कर नहीं कोई अदालत है,
नहीं हक़ की जिरह से बढ़ जहाँ में कुछ वकालत है,
लड़ो मजलूम की खातिर सहो हँस जुल्म की आँधी,
जहाँ में इससे बढ़ कर के नहीं कोई सदाकत है।

(1222×4)
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खुशी के गा तराने मैं हमेशा।
तुम्हें आया हँसाने मैं हमेशा।
करूँ हल्का तुम्हारा ग़म, मेरा भी।
दिखा सपने सुहाने मैं हमेशा।।

(1222 1222 122)
**********

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
8-10-19

Friday, March 12, 2021

रोला छंद "शाम'

रवि को छिपता देख, शाम ने ली अँगड़ाई।
रक्ताम्बर को धार, गगन में सजधज आई।।
नृत्य करे उन्मुक्त, तपन को देत विदाई।
गा कर स्वागत गीत, करे रजनी अगुवाई।।

सांध्य-जलद हो लाल, नृत्य की ताल मिलाए।
उमड़-घुमड़ कर मेघ, छटा में चाँद खिलाए।।
पक्षी दे संगीत, मधुर गीतों को गा कर।
मोहक भरे उड़ान, पंख पूरे फैला कर।।

मुखरित किये दिगन्त, शाम ने नभ में छा कर।
भर दी नई उमंग, सभी में खुशी जगा कर।।
विहग वृन्द ले साथ, करे सन्ध्या ये नर्तन।
अद्भुत शोभा देख, पुलक से भरता तन मन।।

नारी का प्रतिरूप, शाम ये देती शिक्षा।
सम्बल निज पे राख, कभी मत चाहो भिक्षा।।
सूर्य पुरुष मुँह मोड़, त्याग के देता जब चल।
रजनी देख समक्ष, सांध्य तब भी है निश्चल।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
18-01-2017

लावणी छन्द (ईश गरिमा)

तेरी ईश सृष्टि की महिमा, अद्भुत बड़ी निराली है;
कहीं शीत है कहीं ग्रीष्म है, या बसन्त की लाली है।
जग के जड़ चेतन जितने भी, सब तेरे ही तो कृत हैं;
जो तेरी छाया से वंचित, वे अस्तित्व रहित मृत हैं।।

धैर्य धरे नित भ्रमणशील रह, धार रखे जीवन धरती;
सागर की उत्ताल तरंगें, अट्टहास तुझसे करती।
कलकल करते सरिता नद में, तेरी निपुण सृष्टि झलके;
अटल खड़े गिरि खंडों से भी, तेरी आभा ही छलके।।

रम्य अरुणिमा प्राची में भर, भोर क्षितिज में जब सोहे;
रक्तवर्ण वृत्ताकृति शोभा, बाल सूर्य की जग मोहे।
चंचल चपल चांदनी में तू, शशि की शीतलता में है।
तारा युक्त चीर से शोभित, निशि की नीरवता में है,

मैदानों की हरियाली में, घाटी की गहराई में;
कोयल की कुहु-कुहु से गूँजित, बासन्ती अमराई में।
अन्न भार से शीश झुकाए, खेतों की इन फसलों में; 
तेरा ही चातुर्य झलकता, कामधेनु की नसलों में।।

विस्तृत एवम् स्वच्छ सलिल से, नील सरोवर भरे हुए;
पुष्पों के गुच्छों से मुकुलित, तरुवर मोहक लदे हुए।
घिरे हुए जो कुमुद दलों से, इठलाते प्यारे शतदल;
तेरी ही आभा के द्योतक, ये गुलाब पुष्पित अति कल।।

पंक्ति बद्ध विहगों का कलरव, रसिक जनों को हर्षाए;
वन गूँजाती वनराजों की, सुन दहाड़ मन थर्राए।
चंचल हिरणी की आँखों में, माँ की प्यार भरी ममता,
तुझसे ही तो सब जीवों की, शोभित रहती है क्षमता।।

हे ईश्वर हे परमपिता प्रभु, दीनबन्धु जगसंचालक;
तेरी कृतियों का बखान है, करना अति दुष्कर पालक।
अखिल जगत सम्पूर्ण चराचर, तुझसे ही तो निर्मित है;
तुझसे लालित पालित होता, तुझसे ही संहारित है।।

भाव प्रसून खिला दे हे प्रभु, हृदय वाटिका में मेरी;
काव्य-सृजन से सुरभित राखूँ, पा कर इसे कृपा तेरी।
मनोकामना पूर्ण करो ये, ईश यही मेरी विनती;
तेरे उपकारों की कोई, मेरे पास नहीं गिनती।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
07-05-2016

सार छंद "टेसू और नेता"

सार छंद / ललितपद छंद

ज्यों टेसू की उलझी डालें, वैसा है ये नेता।
स्वारथ का पुतला ये केवल, अपनी नैया खेता।।
पंच वर्ष तक आँसू देता, इसका पतझड़ चलता।
जिस में सोता कुम्भकरण सा, जनता का जी जलता।।

जब चुनाव नेड़े आते हैं, तब खुल्ले में आता।
नव आश्वासन की झड़ से ये, भारी शोर मचाता।।
ज्यों बसंत में टेसू फूले, त्यों चुनाव में नेता।
पाँच साल में एक बार यह, जनता की सुधि लेता।।

क्षण क्षण रूप बदलता रहता, गिरगिट के ये जैसा।
चाल भाँप लोगों की पहले, रंग दिखाता वैसा।।
रंग दूर से ही टेसू का, लगता बड़ा सुहाना।
फिर तो उसका यूँ ही झड़ कर, व्यर्थ चला है जाना।।

एक लक्ष्य इस नेता का है, कैसे कुर्सी पाये।
साम, दाम जैसे भी हो ये, सत्ता बस हथियाये।।
चटक मटक ऊपर की ओढ़े, गन्ध हीन टेसू सा।
चार दिनों की शोभा इसकी, फिर उलझे गेसू सा।।


बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
18-03-17

Friday, March 5, 2021

ग़ज़ल (प्यास दिल की न यूँ बढ़ाओ)

बह्र:- 2122  1212  22

प्यास दिल की न यूँ बढ़ाओ तुम,
जान ले लो न पर सताओ तुम।

पास आ के जरा सा बैठो तो,
फिर न चाहे गलेे लगाओ तुम।

चोट खाई बहुत जमाने से,
कम से कम आँख मत चुराओ तुम।

इल्तिज़ा आख़िरी ये जानेमन,
अब तो उजड़ा चमन बसाओ तुम।

खुद की नज़रों से खुद ही गिर कर के,
आग नफ़रत की मत लगाओ तुम,

बीच सड़कों के क़त्ल, शील लुटे,
देख कर सब ये तिलमिलाओ तुम।

ख़ारों के बीच रह के भी ए 'नमन'
खुद भी हँस औरों को हँसाओ तुम।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
12-02-2017

ग़ज़ल (तीर नज़रों का उनका चलाना हुआ)

बह्र:- 212*4

तीर नज़रों का उनका चलाना हुआ,
और दिल का इधर छटपटाना हुआ।

हाल नादान दिल का न पूछे कोई,
वो तो खोया पड़ा आशिक़ाना हुआ।

ये शब-ओ-रोज़, आब-ओ-हवा आसमाँ,
शय अज़ब इश्क़ है सब सुहाना हुआ।

अब नहीं बाक़ी उसमें किसी की जगह,
जिनकी यादों का दिल आशियाना हुआ।

क्या यही इश्क़ है, रूठा दिलवर उधर,
और दुश्मन इधर ये जमाना हुआ।

जो परिंदा महब्बत का दिल में बसा,
बाग़ उजड़ा तो वो बेठिकाना हुआ।

शायरी ग़म भुलाती थी तेरे 'नमन',
शौक़ उल्फ़त का पर दिल जलाना हुआ।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
30-09-19

ग़ज़ल (ग़म पी पी कर दिल जब ऊबा)

बह्र:- 2222 2222 2222 222

ग़म पी पी कर दिल जब ऊबा, तब मयखाने याद आये,
तेरी आँखों की मदिरा के, सब पैमाने याद आये।

उम्मीदों की मिली हवाएँ जब भी दिल के शोलों को 
तेरे साथ गुजारे वे मदहोश ज़माने याद आये।

मदहोशी में कुछ गाने को जब भी प्यासा दिल मचला, 
तेरा हाथ पकड़ जोे गाये, सभी तराने याद आये।

ख्वाबों में भी मैंने चाहा, जब भी तुझ को छूने को,
इठला कर वो ना ना करते, हसीं बहाने याद आये।

संगी साथी संग कभी गर दिल हल्का करना चाहा,
तू मुझ में मैं तुझ में खोया दो दीवाने याद आये।

पल जो तेरे साथ गुजारे, तरस गया हूँ अब उनको,
तेरी मीठी नोक झोंक के, सब अफ़साने याद आये।

नए कभी उपहार मिलें तो, टीस 'नमन'-मन में उठती,
होठों से जो तुझ से मिले थे, वे नज़राने याद आये।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
15-12-16

Sunday, February 21, 2021

राजस्थानी डाँखला (1)

(1)

लिछमी बाईसा री न्यारी नगरी है झाँसी,
गद्दाराँ रै गलै री बणी थी जकी फाँसी।
राणी सा रा ठाठ बाठ,
गाताँ थकै नहीं भाट।
सुण सुण फिरंग्याँ के चाल जाती खाँसी।।
****
(2)

बाकी सब गढणियाँ गढ तो चित्तौडगढ़,
उपज्या था वीर अठै एक से ही एक बढ।
कुंभा री हो ललकार,
साँगा री या तलवार,
देशवासी बणो बिस्या गाथा वाँ री पढ पढ।।
****
(3)

राजनीति माँय बड़ग्या सगला उचक्का चोर,
श्राधां आला कागला सा उतपाती घनघोर।
पड़ जावै जठै पाँव,
मचा देवे काँव काँव।
चाटग्या ये देश सारो निकमा मुफतखोर।
****

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
08-09-20

क्षणिकाएँ

(बीती जवानी)

(1)
जवानी में जो
इरादे पत्थर से
मजबूत होते थे,,,
वे अब अक्सर
पुराने फर्नीचर से
चरमरा टूट जाते हैं।
**

(2)

क्षणिका  (परेशानी)

जो मेरी परेशानियों पर
हरदम हँसते थे
पर अब मैंने जब
परेशानियों में
हँसना सीख लिया है
वे ही मुझे अब
देख देख
रो रहे हैं।
**

(3)

क्षणिका (पहचान)

आभासी जग में 
पहचान बनाते बनाते
अपनी पहचान
खो रहे हैं----
मेलजोल के चक्कर में
और अकेले
हो रहे हैं।
**

बासुदेव अग्रवाल नमन
तिनसुकिया
15-06-19

पथिक (नवगीत)

जो सदा अस्तित्व से 
अबतक लड़ा है।
वृक्ष से मुरझा के 
पत्ता ये झड़ा है।

चीर कर 
फेनिल धवल 
कुहरे की चद्दर,
अव्यवस्थित से 
लपेटे तन पे खद्दर,
चूमने 
कुहरे में डूबे 
उस क्षितिज को,
यह पथिक 
निर्द्वन्द्व हो कर 
चल पड़ा है।

हड्डियों को 
कँपकँपाती 
ये है भोर,
शांत रजनी सी 
प्रकृति में
है न थोड़ा शोर,
वो भला इन सब से 
विचलित क्यों रुकेगा?
दूर जाने के लिए 
ही जो अड़ा है।

ठूंठ से जो वृक्ष हैं 
पतझड़ के मारे,
वे ही साक्षी 
इस महा यात्रा 
के सारे,
हे पथिक चलते रहो 
रुकना नहीं तुम,
तुमको लेने ही 
वहाँ कोई खड़ा है।

जीव का परब्रह्म में 
होना समाहित,
सृष्टी की धारा 
सतत ये है 
प्रवाहित,
लक्ष्य पाने की ललक 
रुकने नहीं दे,
प्रेम ये 
शाश्वत मिलन का 
ही बड़ा है।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
8-4-17