Friday, May 10, 2019

आधुनिक नारी (कुण्डलिया)

सारी पहने लहरिया, घर से निकली नार।
रीत रिवाजों में फँसी, लम्बा घूँघट डार।
लम्बा घूँघट डार, फोन यह कर में धारे।
शामत उसकी आय, हाथ इज्जत पर डारे।
अबला इसे न जान, लाज की खुद रखवारी।
कर देती झट दूर, अकड़ चप्पल से सारी।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
19-5-17

कुण्डलिया "मोबॉयल"

मोबॉयल से मिट गये, बड़ों बड़ों के खेल।
नौकर, सेठ, मुनीमजी, इसके आगे फेल।
इसके आगे फेल, काम झट से निपटाता।
मुख को लखते लोग, मार बाजी ये जाता।
निकट समस्या देख, करो नम्बर को डॉयल।
सौ झंझट इक साथ, दूर करता मोबॉयल।।

मोबॉयल में गुण कई, सदा राखिए संग।
नूतन मॉडल हाथ में, देख लोग हो दंग।
देख लोग हो दंग, पत्नियाँ आहें भरती।
कैसी है ये सौत, कभी आराम न करती।
कहे 'बासु' कविराय, लोग अब इतने कायल।
दिन देखें ना रात, हाथ में है मोबॉयल।।

मोबॉयल बिन आज है, सूना सब संसार।
जग के सब इसपे चले, रिश्ते कारोबार।
रिश्ते कारोबार, व्हाटसप इस पर फलते।
वेब जगत के खेल, फेसबुक यहाँ मचलते।
मधुर सुनाए गीत, दिखाए छमछम पायल।
झट से फोटो लेत, सौ गुणों का मोबॉयल।।

मोबॉयल क्या चीज है, प्रेमी जन का वाद्य।
नारी का जेवर बड़ा, बच्चों का आराध्य।
बच्चों का आराध्य, रखे जो खूबी सारी।
नहीं देखते लोग, दाम कितने हैं भारी।
दो पल भी विलगाय, कलेजा होता घायल।
कहे 'बासु' कविराय, मस्त है ये मोबॉयल।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
10-06-2016

Wednesday, May 8, 2019

ग़ज़ल (हमारे मन में ये व्रत धार लेंगे )

बह्र:- 1222  1222  122

हमारे मन में ये व्रत धार लेंगे,
भुला नफ़रत सभी को प्यार देंगे।

रहेंगे जीते हम झूठी अना में,
भले ही घूँट कड़वे हम पियेंगे।

भले पहुँचे कहाँ से जग कहाँ तक,
जहाँ हम थे वहीं अब भी रहेंगे।

इसी उम्मीद में हैं जी रहे अब,
कभी तो आसमाँ हम भी छुयेंगे।

रे मन परवाह करना छोड़ जग की,
भले तुझको दिखाएँ लोग ठेंगे।

रहो बारिश में अच्छे दिन की तुम तर,
मगर हम पे जरा ये कब चुयेंगे।

नए ख्वाबों की झड़ लगने ही वाली,
उन्हीं पे पाँच वर्षों तक जियेंगे।

तु सुध ले या न ले, यादों के तेरी,
ये दीपक रात भर यूँ ही जलेंगे।

रखो कोशिश 'नमन' दिल जोड़ने की,
कभी तो टूटे दिल वापस मिलेंगे।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
10-11-18

ग़ज़ल (तिजारत हुक्मरानी हो गई है)

बह्र:- 1222  1222  122

तिजारत हुक्मरानी हो गई है,
कहीं गुम शादमानी हो गई है।

न गांधी शास्त्री से अब हैं रहबर,
शहादत उनकी फ़ानी हो गई है।

कहाँ ढूँढूँ तुझे ओ नेक नियत,
तेरी गायब निशानी हो गई है।

तेरा तो हुश्न ही दुश्मन है नारी,
कठिन इज्जत बचानी हो गई है।

लगी जब बोलने बिटिया हमारी,
वो घर में सबकी नानी हो गई है।

तू आयी जिंदगी में जब से जानम,
तेरी हर शय सुहानी हो गई है।

हमीं से चार लेकर एक दे कर,
'नमन' सरकार दानी हो गई है।

हुक्मरानी=शासन करना
तिजारत=व्यापार
शादमानी=खुशी
रहबर=पथ-प्रदर्शक

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
2-10-17

ग़ज़ल (रहें बस चुप! शराफ़त है)

बह्र:- 1222   1222   122

रहें बस चुप! शराफ़त है? नहीं तो,
जुबाँ खोलें? इजाजत है? नहीं तो।

करें हासिल अगर हक़ लड़के अपना,
तो ये लड़ना अदावत है? नहीं तो।

बड़े मासूम बन वादों से मुकरो,
कोई ये भी सियासत है? नहीं तो।

दिखाए आँख हाथी को जो चूहा,
भला उसकी ये हिम्मत है? नहीं तो।

है आमादा कोई गर जंग पर ही,
सुलह चाहें जलालत है? नहीं तो।

कयामत ढ़ा रही है मुफ़लिसी अब,
ज़रा भी दिल में हैरत है? नहीं तो।

'नमन' जुल्म-ओ-सितम पर चुप ही रहना,
यही दुनिया की फ़ितरत है? नहीं तो।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
15-04-2017

Monday, May 6, 2019

कुण्डला मौक्तिका (लावारिस वस्तु)

(पदांत 'मिलती', समांत 'ओ' स्वर)

मिलती पथ में कुछ पड़ी, वस्तु करें स्वीकार,
समझ इसे अधिकार, दबा लेते जो मिलती।।
अनायास कुछ प्राप्ति का, लिखा राशि में योग,
बंदे कर उपभोग, भाग्य वालों को मिलती।।

जन्मांतर के पुण्य सब, लगे साथ में जागे,
इस कारण से आज ये, आई आँखों आगे।
देने वाले देवता, देत पात्र को देख,
लिखी टले नहिं रेख, हमें तब ही तो मिलती।।

पुरखों के बड़ भाग से, लावारिस चल आती,
बिन प्रयास के कुछ मिले, हृदय कली खिल जाती।
लख के यहाँ अभाव मन, उनका जाता डोल,
भेजें वे जी खोल, तभी चाहें वो मिलती।।

घड़ी पुण्य की ये बड़ी, नजर वस्तु जब आई,
इधर उधर में ताक के, हमने शीघ्र उठाई।
पाकिट में हम डाल के, सोच रहे बिन लाज,
'नमन' भाग्य था आज, अन्यथा सबको मिलती।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
14-10-2016

मौक्तिका (चीन की बेटी)

2*8 (मात्रिक बहर)
(पदांत 'कर डाला', समांत 'आ' स्वर)

यहाँ चीन की आ बेटी ने,
सबको मतवाला कर डाला।
बच्चा, बूढ़ा या जवान हो,
कद्रदान अपना कर डाला।।

होता लख के चहरा तेरा,
तेरे आशिक जन का' सवेरा।
जब तक शम्मा सी ना आये,
तड़पत परवाना कर डाला।।

लब से गर्म गर्म ना लगती,
आँखों से न खुमारी भगती।
करवट बदले बाट देखते,
जादू ये कैसा कर डाला।।

कड़क रहो तो लगे मस्त तू,
मिले न जब तक करे पस्त तू।
लगी गले से जब मतवाली,
तन मन जोशीला कर डाला।।

गरम रहो तो हमें लुभाती,
ठण्डी तू बिलकुल न सुहाती।
चहरे पे दे गर्म भाप को,
पागल तन मन का कर डाला।।

जो तु लिये हो पूरी लाली,
तीखी और मसालेवाली।
चुश्की चुश्की ले चखने पर,
खुशबू से पगला कर डाला।।

चाय पियें जो वे पछतातेे,
जो न पियें वे भी ग़म खाते।
'नमन' चीन की बेटी तूने,
ये देश दिवाना कर डाला।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
30-06-2016

मौक्तिका (पापा का लाडला)

1222*4 (विधाता छंद आधारित)
(पदांत 'तुम्हें पापा', समांत 'आऊँगा')

अभी नन्हा खिलौना हूँ , बड़ा प्यारा दुलारा हूँ;
उतारो गोद से ना तुम, मनाऊँगा तुम्हें पापा।।
भरूँ किलकारियाँ प्यारी, करूँ अठखेलियाँ न्यारी;
करूँ कुछ खाश मैं नित ही, रिझाऊँगा तुम्हें पापा।।

इजाजत जो तुम्हारी हो, करूँ मैं पेश शैतानी;
हवा में जोर से उछलूँ, दिखाऊँ एक नादानी।
खुला है आसमाँ फैला, लगाऊँगा छलाँगें मैं;
अभी नटखट बड़ा हूँ मैं, सताऊँगा तुम्हें पापा।।

बलैयाँ खूब मेरी लो, गले से तुम लगा कर अब;
करूँ शैतानियाँ मोहक, करो तुम प्यार जी भर अब।
नहीं कोई खता मेरी, लड़कपन ये सुहाना है;
बड़ा ही हूँ खुरापाती, भिजाऊँगा तुम्हें पापा।।

चलाओ चाल अंगुल से, पढ़ाओ पाठ जीवन का;
बताओ बात मतलब की, सिखाओ मोल यौवन का।
जमाना याद जो रखता, वही शिक्षा मुझे देओ;
'नमन' मेरा तुम्हें अर्पण, बढाऊँगा तुम्हें पापा।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
12-07-2016

मौक्तिका विधान

हिन्दी काव्य की एक विधा जिसमें चार चार पद के 'मुक्ता' एक माला की तरह गूँथे जाते हैं। मैंने इसका नाम मौक्तिका दिया है क्योंकि इस में 'मुक्ता' शेर की तरह पिरोये जाते हैं। मौक्तिका में मुक्ताओं की संख्या कितनी होगी इसके लिए कोई निश्चित नियम नहीं है फिर भी 4 तो होने ही चाहिए। मौक्तिका के सारे मुक्ता एक दूसरे से सम्बंधित हो कर मौक्तिका को एक पूर्ण कविता का रूप प्रदान करते हैं।

मौक्तिका का मुक्ता 4 पद या पंक्तियों की एक रचना है।
मुक्ता के दो भाग है जिन्हें मैंने अलग अलग नाम दिया है---
(1) तुकांतिका- मुक्ता के प्रथम दो पद जो समतुकांत होने आवश्यक हैं।
(2) मुक्तिका- मुक्ता के अंतिम दो पद जिनकी संरचना ठीक ग़ज़ल के शेर जैसी होती है। मुक्तिका के दोनों पद समतुकांत नहीं होने चाहिए।तुकांतिका और मुक्तिका का प्रथम पद 'पूर्व पद' और दूसरा पद 'पूरक पद' कहलाता है। मुक्तिका के पूरक पद का अंत किसी खास शब्द या शब्दों से होता है जो पूरी मौक्तिका की हर मुक्तिका में एक ही रहता है। इसे पदांत के नाम से जाना जाता है। यही उर्दू में रदीफ़ कहलाता है। इसके अलावा हर पदांत के ठीक पहले आया हुआ शब्द हर मुक्तिका में हमेशा समतुकांत रहता है जिसे समांत कहा जाता है। उर्दू में यही काफ़िया कहलाता है। हर मुक्तिका में समांत का होना आवश्यक है जबकि पदांत का लोप भी किया जा सकता है। मौक्तिका की प्रत्येक मुक्तिका में एक ही समांत का होना ही मौक्तिका की विशेषता है।

मौक्तिका का पहला मुक्ता प्रमुख होता है और इसे मुखड़ा के नाम से जाना जाता है। मुखड़ा में तुकांतिका नहीं होती केवल दो मुक्तिका होती हैं। मुखड़ा से ही मौक्तिका की हर मुक्तिका के पदांत और समांत का निर्धारण होता है। मुखड़ा के बाद के हर मुक्ता में तुकांतिका और मुक्तिका दोनों होती है।

मौक्तिका के अंतिम मुक्ता को मनका के नाम से जाना जाता है जिसमें मौक्तिका का उपसंहार होता है इस में कवि अपना नाम या उपनाम भी पिरो सकता है।

मौक्तिका सदैव छंद या बहर आधारित होनी चाहिए। हिंदी की कोई भी मात्रिक या वार्णिक छंद ली जा सकती है। गजलों की मान्य बहरों के अतिरिक्त लघु दीर्घ के निश्चित क्रम के कुछ भी लयात्मक वर्णवृत्त लिए जा सकते हैं। गजलों में जिस प्रकार की मात्रा गिराने की छूट रहती है मौक्तिका में भी वह रहती है। इससे रचनाकार को मौक्तिका में मन चाहे भाव समेटने में आसानी हो जाती है। मौक्तिका में एक साथ आये हुए दो लघु चाहे वे एक ही शब्द में हो या अलग अलग शब्द में हो, छंद के विधान के अनुसार दो लघु भी गिने जा सकते हैं अथवा एक दीर्घ भी। केवल 2 के आवर्तन से बनी मात्रिक बहरों जैसे 2*4, 2*15 आदि में दो लघु एक साथ न भी हो तो एक दीर्घ गिने जा सकते हैं पर ये सब छूट लेते समय यह सदैव ध्यान रहे कि लय और प्रवाह भंग न हो।

हिंदी में एक छंद में चार चरण या पद रहते हैं। दोहे में भी चार पद होते हैं किंतु 2 पंक्तियों में लिखने की परंपरा है। मौक्तिका के मुक्ता में भी हिंदी की इसी परंपरा का निर्वहन करते हुए मैंने चार पद रखे हैं। हिंदी में एक रचना के हर छंद में स्वतंत्र विचार दोहों और सौरठों में ही रखे जाते हैं जबकि अन्य छन्दों में पूरी रचना एक ही भाव पर केंद्रित एक कविता का रूप रखती है। एक मौक्तिका भी अपने आप में एक ही विषय वस्तु पर केंद्रित एक पूर्ण कविता होती है न कि छुटपुट मुक्ताओं का संग्रह मात्र।

मौक्तिका में लय, छंद, वर्ण विन्यास और क्रम के साथ साथ गजल वाली तुकांतता की एक रूपता भी है और साथ ही एक पूर्ण कविता का गुण भी। इन्हीं सब तथ्यों को दृष्टिगत रखते हुए मैंने इस विधान पर प्रयोग करते हुए कुछ रचनाएँ लिखी और इस आलेख में इसके विधान की रूप रेखा प्रस्तुत करने की चेष्टा की है।

कुण्डला मौक्तिका:- मौक्तिका का एक भेद। इसकी संरचना कुंडलियाँ छंद के आधार पर की गई है। इसमें मुक्तिका का पूर्व पद दोहा की एक पंक्ति होती है तथा पूरक पद रोला छंद की एक पंक्ति होती है। दोहा के सम पद की रोला के विषम पद से तुक भी मिलाई जा सकती है। कुंडलियाँ छंद की तरह दोहा की पंक्ति जिस शब्द या शब्द समूह से प्रारंभ होती है रोला की पंक्ति का समापन भी उसी शब्द या शब्द समूह से होना आवश्यक है। यह शब्द या शब्द समूह पूरी रचना में पदांत का काम करता है। इस पदांत के अतिरिक्त समांत का होना भी आवश्यक है। तुकांतिका में मुक्तामणि या रोला छंद की दो पंक्तियाँ रखी जा सकती है। मेरी 'बेटी' शीर्षक की कुण्डला मौक्तिका का मुखड़ा एवं एक मुक्ता देखें-

बेटी शोभा गेह की, मात पिता की शान,
घर की है ये आन, जोड़ती दो घर बेटी।।
संतानों को लाड दे, देत सजन को प्यार,
रस की करे फुहार, नेह दे जी भर बेटी।।

रिश्ते नाते जोड़ती, मधुर सभी से बोले,
रखती घर की एकता, घर के भेद न खोले।
ममता की मूरत बड़ी, करुणा की है धार,
घर का सामे भार, काँध पर लेकर बेटी।।

दोहा 'बेटी' शब्द से प्रारंभ हो रहा है और यह रचना में पदांत का काम कर रहा है। हर मुक्तिका में पदांत के ठीक पहले समांत  घर, भर, कर हैं। दोहे की पंक्ति के अंत में आये शब्द शान, प्यार, धार आदि से रोला की प्रथम यति में तुक मिलाई गयी है। तुकांतिका मुक्तामणि छंद की दो पंक्तियाँ है। यह छंद दोहे की पंक्ति का अंत जो सदैव लघु रहता है, उसको दीर्घ करने से बन जाता है। अतः बहुत उपयुक्त है। मुक्तामणि की जगह रोला की  भी दो पंक्तियाँ रखी जा सकती हैं।


बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
10-06-16

Saturday, April 27, 2019

मनहरण घनाक्षरी 'भारत महिमा"

उत्तर बिराज कर, गिरिराज रखे लाज,
तुंग श्रृंग रजत सा, मुकुट सजात है।

तीन ओर पारावार, नहीं छोर नहीं पार,
मारता हिलोर भारी, चरण धुलात है।

जाग उठे तेरे भाग, गर्ज गंगा गाये राग,
तेरी इस शोभा आगे, स्वर्ग भी लजात है।

तुझ को 'नमन' मेरा, अमन का दूत तू है,
जग का चमन हिन्द, सब को रिझात है।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
15-12-16

मनहरण घनाक्षरी "समाज-सेवी"

करे खुद विष-पान, रखके सभी का मान,
रखता समाज को जो, हरदम जोड़ के।

सब को ले साथ चले, नहीं भेदभाव रखे,
एकता में बाँध रखे, बिन तोड़-फोड़ के।

थोथी बातें नहीं करे, सदा खुद आगे आये,
बने वो उदाहरण, रूढ़ियों को तोड़ के।

सर पे बिठाते लोग, ऐसे कर्मवीर को जो,
करता समाज-सेवा, स्वार्थ सब छोड़ के।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
10-11-17

घनाक्षरी सृजन के नियम

घनाक्षरी वर्णिक छंद है जिसमें 30 से लेकर 33 तक वर्ण होते हैं परंतु अन्य वर्णिक छन्दों की तरह इसमें गणों का नियत क्रम नहीं है। यह कवित्त के नाम से भी प्रसिद्ध है। घनाक्षरी गणों के और मात्राओं के बंधन में बंधा हुआ छंद नहीं है परंतु इसके उपरांत भी बहुत ही लय युक्त मधुर छंद है और यह लय कुछेक नियमों के अनुपालन से ही सधती है। अतः घनाक्षरी केवल अक्षरों को गिन कर बैठा देना मात्र नहीं है। इसमें साधना की आवश्यकता है तथा ध्यान पूर्वक लय के नियमों के अंतर्गत ही इसका सफल सृजन होता है। मैने इस छंद को नियमबद्ध करने का प्रयास किया है और मुझे विश्वास है कि इन नियमों के अंतर्गत कोई भी गंभीर सृजक लय युक्त निर्दोष घनाक्षरी सृजित कर पायेगा।

किसी भी प्रकार की घनाक्षरी में प्रथम यति 16 वर्ण पर निश्चित है। इस यति को भी यदि कोई चाहे तो 8+8 के दो विभागों में विभक्त कर सकता है। दूसरी यति घनाक्षरी के भेदों के अनुसार 30, 31, 32, या 33 वर्ण पर पड़ती है ओर यह घनाक्षरी का एक चरण हो गया। इस यति में भी 8 वर्ण के पश्चात आभ्यांतरिक यति रखी जा सकती है। इस प्रकार के चार चरणों का एक छंद होता है और चारों चरण समतुकांत होने आवश्यक है।
निम्न नियम हर प्रकार की घनाक्षरी के लिए उपयुक्त है।

चार चार अक्षरों के, शुरू से बना लो खंड,
अक्षरों का क्रम, एक दोय तीन चार है।

समकल शब्द यदि, एक ती से होय शुरू,
मत्त के नियम का न, सोच व विचार है।

चार से जो शुरू शब्द, 'नगण' या लघु गुरु।
शुरू यदि दो से तब, लघु शुरू भार है।

एक पे समाप्त शब्द, लघु गुरु नित रहे।
'नमन' घनाक्षरी का, बस यही सार है।।
*****
समकल शब्द यानि 2, 4, 6 अक्षर का शब्द।
मत्त=मात्रा
'नगण' = तीन अक्षर के शब्द में तीनों लघु।

खण्ड = 1/खण्ड = 2/खण्ड = 3/खण्ड = 4
1 2 3 4// 1 2 3 4// 1 2 3 4// 1 2 3 4

ऊपर घनाक्षरी की प्रथम यति के16 वर्ण चार चार के खंड में विभाजित किये गए हैं। द्वितीय यति भी इसी प्रकार विभाजित होगी। उनका क्रम 1,2,3,4 है। घनाक्षरी के नियम इसी बात पर आधारित हैं कि शब्द खण्ड की किस क्रम संख्या से प्रारंभ हो रहा है अथवा किस क्रम संख्या पर समाप्त हो रहा है। ऊपर के विभाजन को देखने से पता चलता है कि जो नियम प्रथम खण्ड की 1 की संख्या के लिए लागू हैं वे ही नियम पंक्ति के क्रम 5, 9, 13 के लिए भी ठीक हैं। यही बात प्रथम खण्ड की क्रम संख्या 2, 3, 4 के लिए भी समझें।

नियम1:- समकल शब्द यदि चार अक्षरों के खंड के प्रथम और तृतीय अक्षर से प्रारम्भ होता है तो वह शब्द मात्रा के नियमों से मुक्त है अर्थात उस शब्द में लघु गुरु मात्रा का कुछ भी क्रम रख सकते हैं।

नियम2:-
"चार से जो शुरू शब्द, 'नगण' या लघु गुरु"
किसी भी खण्ड की क्रम संख्या 4 से प्रारंभ शब्द के शुरू में लघु गुरु (1 2) रहता है। वह शब्द यदि त्रिकल है तो लघु गुरु से भी प्रारंभ हो सकता है या फिर शब्द में तीनों लघु हो सकते हैं। एकल इस नियम से मुक्त है, यह शब्द दीर्घ या लघु कुछ भी हो सकता है।

नियम3:-"शुरू यदि दो से तब, लघु शुरू भार है"
किसी भी खण्ड की क्रम संख्या 2 से प्रारंभ शब्द सदैव लघु से ही प्रारंभ होता है। परंतु एकल पर यह नियम लागू नहीं है।

नियम4:- "एक पे समाप्त शब्द, लघु गुरु नित रहे"
इस बात को थोड़ा ध्यान पूर्वक समझें कि क्रम संख्या 1 पर समाप्त शब्द सदैव लघु गुरु (1 2) रहना चाहिए। परन्तु प्रथम खण्ड के 1 पर तो लघु गुरु 2 अक्षरों की गुंजाइश नहीं है तो इसका अर्थ यह है कि वह शब्द एकल है और सदैव दीर्घ जैसे 'है' 'जो' 'ज्यों' इत्यादि ही रहेगा। खण्ड की क्रम संख्या 1 से प्रारंभ एकल शब्द लघु जैसे 'न' 'व' इत्यादि नहीं हो सकता। तो एकल यदि किसी भी खंड के प्रथम स्थान पर है तो वह सदैव दीर्घ रहता है, अन्यथा एकल इस नियम से मुक्त है। यानि अन्य स्थानों पर एकल लघु या दीर्घ कुछ भी हो सकता है। दूसरी बात यह कि खण्ड 2, 3,4 की क्रम संख्या 1 पर समाप्त शब्द यदि एक से अधिक अक्षर का है तो उस शब्द का अंत सदैव लघु गुरु (1 2) से होना चाहिए। जैसे 'सदा', 'संपदा' 'लुभावना' आदि। एक पंक्ति देखें
"हाय तोहरा लजाना, है लुभावना सुहाना"

इसके अतिरिक्त किसी भी खण्ड के प्रारंभ के त्रिकल शब्द में गणों का अनुशासन भी आवश्यक है। किसी भी खण्ड का 1 से 3 का त्रिकल शब्द मध्य गुरु का न रखें, इससे लय में व्यवधान उत्पन्न होता है। यानि कोई भी खण्ड जगण, तगण, यगण या मगण से प्रारंभ न हो। यह अनुशासन केवल पूर्ण त्रिकल के लिए है, यदि यह त्रिकल दो शब्दों से बनता है तो यह अनुशासन लागू नहीं है।

मात्रा मैत्री निभानी भी आवश्यक है। यदि एक विषमकल शब्द आता है तो उसके तुरन्त बाद दूसरा विषमकल शब्द आये जिससे दोनों मिल कर समकल हो जाये। क्योंकि घनाक्षरी का प्रवाह समकल पर आधारित है। परन्तु दो विषमकलों के मध्य 12 से शुरू होनेवाला शब्द आ सकता है।

जैसे द्विजदेव का एक उदाहरण देखें।

घहरि घहरि घन सघन चहूंधा घेरि
छहरि छहरि विष बूंद बरसावै ना।
'द्विजदेव' की सों अब चूक मत दांव एरे
पातकी पपीहा तू पिया की धुनि गावै ना।
फेरि ऐसो औसर न ऐहै तेरे हाथ एरे
मटकि मटकि मोर सोर तू मचावै ना ।
हौं तो बिन प्रान प्रान चहत तज्योई अब
कत नभचन्द तू अकास चढ़ि धावै ना।।

'तू पिया की' में दो विषमकलों के मध्य 12 से शुरू होने वाले शब्द को देखें। और भी बताए हुये नियमों पर गौर करें। मुझे आशा है इन नियमों का पालन करते हुए आप सफल घनाक्षरी का सृजन कर सकेंगे।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया

Thursday, April 25, 2019

भजन "माता के दरबार चलो"

माता के दरबार चलो।
माता बेड़ा पार करेगी, करके ये स्वीकार चलो।।

जग के बन्धन यहीं रहेंगे, प्राणी क्यों भरमाया है।
मात-चरण की शरण धार के, मन से त्यज संसार चलो।।
माता के दरबार चलो।।

जितना रस लो उतना घेरे, जग की तृष्णा ऐसी है।
रिश्ते-नाते लोभ मोह का, छोड़ यहाँ व्यापार चलो।।
माता के दरबार चलो।

आदि शक्ति जगदम्ब भवानी, जग की पालनहारा है।
माँ से बढ़ कर कोउ न दूजा, मन में ये तुम धार चलो।।
माता के दरबार चलो।

नवरात्री की महिमा न्यारी, अवसर पावन आया है।
'नमन' कहे माँ के धामों में, सारे ही नर नार चलो।।
माता के दरबार चलो।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
21-09-17

भजन "चरण-छटा श्रीजी की न्यारी"

चरण-छटा श्रीजी की न्यारी।
मैं छिन छिन जाऊँ बलिहारी।।

वृषभानु और कीर्ति की प्यारी बरसाने की दुलारी।
निश्छल अरु निस्वार्थ प्रेम की मूरत यह मनहारी।
चरण-छटा श्रीजी की न्यारी।।

उर में जोड़ी बसी रहे श्याम सलोने और तिहारी।
नैनों से कभी अलग ना हो ये जोड़ी प्यारी प्यारी।
चरण-छटा श्रीजी की न्यारी।।

जो अनुराग रखे माता में उसकी सब विपदा टारी।
गोलोकधाम की महारानी की शोभा जग में भारी।
चरण-छटा श्रीजी की न्यारी।

उर में बसो हे राधा रानी पीर हरो मेरी सारी।
शत शत 'नमन' करूँ नित ही अरु महिमा गाऊँ थारी।
चरण-छटा श्रीजी की न्यारी।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
09-07-2016

Wednesday, April 24, 2019

प्रहरणकलिका छंद "विकल मन"

मधुकर अब क्यों गुनगुन करते।
सुलगत हिय में छटपट भरते।।
हृदय रहत आकुल अब नित है।
इन कलियन में मधु-रस कित है।।

पुहुप पुहुप पे भ्रमण करत हो।
विरहण सम आतुर विचरत हो।।
भ्रमर परखलो सब कुछ बदला।
गिरधर बिन तो कण कण पगला।।

नयन विकल श्याम-रस रत हैं।
हरि-छवि चखने मग निरखत हैं।।
यह तन मन नीरस पतझड़ सा।
जगत लगत पाहन सम जड़ सा।।

शुभ अवसर दो तव दरशन का।
व्यथित रस चखूँ दउ चरणन का।।
नटवर प्रकटो सुखकर वर दो।
सरस अमिय जीवन यह कर दो।।==================
लक्षण छंद:-

"ननभन लग" छंद रचत शुभदा।
'प्रहरणकलिका' रसमय वरदा।।

"ननभन लग" = नगण नगण भगण नगण लघु गुरु

111 111  211 111+लघु गुरु =14 वर्ण
चार चरण, दो दो समतुकांत

उदाहरण छंद "गणपति-छवि"

गणपति-छवि अन्तरपट धर के।
नित नव रस में मन सित कर के।।
गजवदन विनायक जप कर ले।
कलि-भव-भय से नर तुम तर ले।।
**********************

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
11-08-18

प्रमिताक्षरा छंद "मधुर मिलन"

प्रमिताक्षरा छंद

सजती सदा सजन से सजनी।
शशि से यथा धवल हो रजनी।।
यह भूमि आस धर के तरसे।
कब मेघ आय इस पे बरसे।।

लगता मयंक नभ पे उभरा।
नव चाव रात्रि मन में पसरा।।
जब शुभ्र आभ इसकी बिखरे।
तब मुग्ध होय रजनी निखरे।।

सजना सजे सजनियाँ सहमी।
धड़के मुआ हृदय जो वहमी।।
घिर बार बार असमंजस में।
अब चैन है न इस अंतस में।।

मन में मची मिलन आतुरता।
अँखियाँ करे चपल चातुरता।।
उर में खिली मदन मादकता।
तन में बढ़ी प्रणय दाहकता।।
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प्रमिताक्षरा छंद विधान -

"सजसासु" वर्ण सज द्वादश ये।
'प्रमिताक्षरा' मधुर छंदस दे।।

"सजसासु" = सगण जगण सगण सगण।
112  121  112  112 = 12 वर्ण का वर्णिक छंद। चार चरण, दो दो समतुकांत।
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन' ©
तिनसुकिया
29-11-2016

Saturday, April 20, 2019

32 मात्रिक छंद "विधान"

32 मात्रिक छंद विधान -

32 मात्रिक छंद चार पदों का सम मात्रिक छंद है जो ठीक चौपाई का ही द्विगुणित रूप है। इन 32 मात्रा में 16, 16 मात्रा पर यति होती है तथा दो दो पदों में पदान्त तुक मिलाई जाती है। 16 मात्रा के चरण का विधान ठीक चौपाई छंद वाला ही है। यह राधेश्यामी छंद से अलग है। राधेश्यामी छंद के 16 मात्रिक चरण का प्रारंभ त्रिकल से नहीं हो सकता उसमें प्रारंभ में द्विकल होना आवश्यक है जबकि 32 मात्रिक छंद में ऐसी बाध्यता नहीं है।

समान सवैया / सवाई छंद विधान -

इस छंद के अंत में जब भगण (211) रखने की अनिवार्यता रहती है तो यह समान सवैया या सवाई छंद के नाम से जाना जाता है।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन' ©
तिनसुकिया

32 मात्रिक छंद "जाग उठो हे वीर जवानों"

जाग उठो हे वीर जवानों, तुमने अब तक बहुत सहा है।
त्यज दो आज नींद ये गहरी, देश तुम्हें ये बुला रहा है।।
छोड़ो आलस का अब आँचल, अरि-ऐंठन का कर दो मर्दन।
टूटो मृग झुंडों के ऊपर, गर्जन करते केहरि सम बन।।1।।

संकट के घन उमड़ रहे हैं, सकल देश के आज गगन में।
व्यापक जोर अराजकता का, फैला भारत के जन-मन में।।
घिरा हुआ है आज देश ये, चहुँ दिशि से अरि की सेना से।
नीति युद्ध की टपक रही है, आज पड़ौसी के नैना से।।2।।

भूल गयी है उन्नति का पथ, इधर इसी की सब सन्ताने।
भटक गयी है सत्य डगर से, स्वारथ के वे पहने बाने।।
दीवारों में सेंध लगाये, वे मिल कर अपने ही घर की।
धर्म कर्म अपना बिसरा कर, ठोकर खाय रही दर दर की।।3।।

आज चला जा रहा देश ये, अवनति के गड्ढे में गहरे।
विस्तृत नभ मंडल में इसके, पतन पताका भारी फहरे।।
त्राहि त्राहि अति घोर मची है, आज देश के हर कोने में।
पड़ी हुयी सारी जनता है, अंधी हो रोने धोने में।।4।।

अब तो जाग जवानों जाओ, तुम अदम्य साहस उर में धर।
काली बन रिपु के सीने का, शोणित पीओ अंजलि भर भर।।
सकल विश्व को तुम दिखलादो, शेखर, भगत सिंह सा बन कर।
वीरों की यह पावन भू है, वीर सदा इस के हैं सहचर।।5।।

बन पटेल, गांधी, सुभाष तुम, भारत भू का मान बढ़ाओ।
देश जाति अरु राष्ट्र-धर्म हित, प्राणों की बलि आज चढ़ाओ।।
मोहन बन कर के जन जन को, तुम गीता का पाठ पढ़ाओ।
भूले भटके राही को मिल, सत्य सनातन राह दिखाओ।।6।।

32 मात्रिक छंद विधान

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
05-06-2016

Friday, April 19, 2019

ग़ज़ल (यही बस मन में ठाना है)

आज के नेताओं पर एक मुसलसल ग़ज़ल

बह्र:- 1222   1222

यही बस मन में ठाना है,
पराया माल खाना है।

डकारें हम भला क्यों लें,
जो खाया पच वो जाना है।

यही लाये लिखा के हम,
कि माले मुफ़्त पाना है।

हमारी सूँघ ले जाए,
जहाँ फौकट का दाना है।

बँधाएँ आस हम झूठी,
गरीबी को हटाना है।

गरीबी गर नहीं हटती,
गरीबों को मिटाना है।

जहाँ दंगे लड़ाई हो,
वहीं हमरा ठिकाना है।

सियासत कर बने लीडर,
यही तो अब जमाना है।

हमें जनता से क्या लेना,
'नमन' बस पद बचाना है।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
26-09-17

ग़ज़ल (पड़े मुझको न क्षण भर कल)

बह्र:- 1222  1222

पड़े मुझको न क्षण भर कल,
मेरा मन है विकल प्रति पल।

मची मन में विकट हलचल,
बिना तेरे न कोई हल।

नहीं अब और जीना है,
ये दुनिया रोज करती छल।

सहन करने का इस तन में,
बचा है अब नहीं कुछ बल।

हुआ यादों में तेरी खो,
कलेजा राख तिल तिल जल।

तड़पता याद करके जी
हुआ है जब से तू ओझल।

'नमन' कितना जलाओगे,
सजन जिद छोड़ अब घर चल।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
29-12-18