Wednesday, April 24, 2019

प्रमिताक्षरा छंद "मधुर मिलन"

प्रमिताक्षरा छंद

सजती सदा सजन से सजनी।
शशि से यथा धवल हो रजनी।।
यह भूमि आस धर के तरसे।
कब मेघ आय इस पे बरसे।।

लगता मयंक नभ पे उभरा।
नव चाव रात्रि मन में पसरा।।
जब शुभ्र आभ इसकी बिखरे।
तब मुग्ध होय रजनी निखरे।।

सजना सजे सजनियाँ सहमी।
धड़के मुआ हृदय जो वहमी।।
घिर बार बार असमंजस में।
अब चैन है न इस अंतस में।।

मन में मची मिलन आतुरता।
अँखियाँ करे चपल चातुरता।।
उर में खिली मदन मादकता।
तन में बढ़ी प्रणय दाहकता।।
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प्रमिताक्षरा छंद विधान -

"सजसासु" वर्ण सज द्वादश ये।
'प्रमिताक्षरा' मधुर छंदस दे।।

"सजसासु" = सगण जगण सगण सगण।
112  121  112  112 = 12 वर्ण का वर्णिक छंद। चार चरण, दो दो समतुकांत।
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन' ©
तिनसुकिया
29-11-2016

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