Saturday, April 27, 2019

घनाक्षरी सृजन के नियम

घनाक्षरी वर्णिक छंद है जिसमें 30 से लेकर 33 तक वर्ण होते हैं परंतु अन्य वर्णिक छन्दों की तरह इसमें गणों का नियत क्रम नहीं है। यह कवित्त के नाम से भी प्रसिद्ध है। घनाक्षरी गणों के और मात्राओं के बंधन में बंधा हुआ छंद नहीं है परंतु इसके उपरांत भी बहुत ही लय युक्त मधुर छंद है और यह लय कुछेक नियमों के अनुपालन से ही सधती है। अतः घनाक्षरी केवल अक्षरों को गिन कर बैठा देना मात्र नहीं है। इसमें साधना की आवश्यकता है तथा ध्यान पूर्वक लय के नियमों के अंतर्गत ही इसका सफल सृजन होता है। मैने इस छंद को नियमबद्ध करने का प्रयास किया है और मुझे विश्वास है कि इन नियमों के अंतर्गत कोई भी गंभीर सृजक लय युक्त निर्दोष घनाक्षरी सृजित कर पायेगा।

किसी भी प्रकार की घनाक्षरी में प्रथम यति 16 वर्ण पर निश्चित है। इस यति को भी यदि कोई चाहे तो 8+8 के दो विभागों में विभक्त कर सकता है। दूसरी यति घनाक्षरी के भेदों के अनुसार 30, 31, 32, या 33 वर्ण पर पड़ती है ओर यह घनाक्षरी का एक चरण हो गया। इस यति में भी 8 वर्ण के पश्चात आभ्यांतरिक यति रखी जा सकती है। इस प्रकार के चार चरणों का एक छंद होता है और चारों चरण समतुकांत होने आवश्यक है।
निम्न नियम हर प्रकार की घनाक्षरी के लिए उपयुक्त है।

चार चार अक्षरों के, शुरू से बना लो खंड,
अक्षरों का क्रम, एक दोय तीन चार है।

समकल शब्द यदि, एक ती से होय शुरू,
मत्त के नियम का न, सोच व विचार है।

चार से जो शुरू शब्द, 'नगण' या लघु गुरु।
शुरू यदि दो से तब, लघु शुरू भार है।

एक पे समाप्त शब्द, लघु गुरु नित रहे।
'नमन' घनाक्षरी का, बस यही सार है।।
*****
समकल शब्द यानि 2, 4, 6 अक्षर का शब्द।
मत्त=मात्रा
'नगण' = तीन अक्षर के शब्द में तीनों लघु।

खण्ड = 1/खण्ड = 2/खण्ड = 3/खण्ड = 4
1 2 3 4// 1 2 3 4// 1 2 3 4// 1 2 3 4

ऊपर घनाक्षरी की प्रथम यति के16 वर्ण चार चार के खंड में विभाजित किये गए हैं। द्वितीय यति भी इसी प्रकार विभाजित होगी। उनका क्रम 1,2,3,4 है। घनाक्षरी के नियम इसी बात पर आधारित हैं कि शब्द खण्ड की किस क्रम संख्या से प्रारंभ हो रहा है अथवा किस क्रम संख्या पर समाप्त हो रहा है। ऊपर के विभाजन को देखने से पता चलता है कि जो नियम प्रथम खण्ड की 1 की संख्या के लिए लागू हैं वे ही नियम पंक्ति के क्रम 5, 9, 13 के लिए भी ठीक हैं। यही बात प्रथम खण्ड की क्रम संख्या 2, 3, 4 के लिए भी समझें।

नियम1:- समकल शब्द यदि चार अक्षरों के खंड के प्रथम और तृतीय अक्षर से प्रारम्भ होता है तो वह शब्द मात्रा के नियमों से मुक्त है अर्थात उस शब्द में लघु गुरु मात्रा का कुछ भी क्रम रख सकते हैं।

नियम2:-
"चार से जो शुरू शब्द, 'नगण' या लघु गुरु"
किसी भी खण्ड की क्रम संख्या 4 से प्रारंभ शब्द के शुरू में लघु गुरु (1 2) रहता है। वह शब्द यदि त्रिकल है तो लघु गुरु से भी प्रारंभ हो सकता है या फिर शब्द में तीनों लघु हो सकते हैं। एकल इस नियम से मुक्त है, यह शब्द दीर्घ या लघु कुछ भी हो सकता है।

नियम3:-"शुरू यदि दो से तब, लघु शुरू भार है"
किसी भी खण्ड की क्रम संख्या 2 से प्रारंभ शब्द सदैव लघु से ही प्रारंभ होता है। परंतु एकल पर यह नियम लागू नहीं है।

नियम4:- "एक पे समाप्त शब्द, लघु गुरु नित रहे"
इस बात को थोड़ा ध्यान पूर्वक समझें कि क्रम संख्या 1 पर समाप्त शब्द सदैव लघु गुरु (1 2) रहना चाहिए। परन्तु प्रथम खण्ड के 1 पर तो लघु गुरु 2 अक्षरों की गुंजाइश नहीं है तो इसका अर्थ यह है कि वह शब्द एकल है और सदैव दीर्घ जैसे 'है' 'जो' 'ज्यों' इत्यादि ही रहेगा। खण्ड की क्रम संख्या 1 से प्रारंभ एकल शब्द लघु जैसे 'न' 'व' इत्यादि नहीं हो सकता। तो एकल यदि किसी भी खंड के प्रथम स्थान पर है तो वह सदैव दीर्घ रहता है, अन्यथा एकल इस नियम से मुक्त है। यानि अन्य स्थानों पर एकल लघु या दीर्घ कुछ भी हो सकता है। दूसरी बात यह कि खण्ड 2, 3,4 की क्रम संख्या 1 पर समाप्त शब्द यदि एक से अधिक अक्षर का है तो उस शब्द का अंत सदैव लघु गुरु (1 2) से होना चाहिए। जैसे 'सदा', 'संपदा' 'लुभावना' आदि। एक पंक्ति देखें
"हाय तोहरा लजाना, है लुभावना सुहाना"

इसके अतिरिक्त किसी भी खण्ड के प्रारंभ के त्रिकल शब्द में गणों का अनुशासन भी आवश्यक है। किसी भी खण्ड का 1 से 3 का त्रिकल शब्द मध्य गुरु का न रखें, इससे लय में व्यवधान उत्पन्न होता है। यानि कोई भी खण्ड जगण, तगण, यगण या मगण से प्रारंभ न हो। यह अनुशासन केवल पूर्ण त्रिकल के लिए है, यदि यह त्रिकल दो शब्दों से बनता है तो यह अनुशासन लागू नहीं है।

मात्रा मैत्री निभानी भी आवश्यक है। यदि एक विषमकल शब्द आता है तो उसके तुरन्त बाद दूसरा विषमकल शब्द आये जिससे दोनों मिल कर समकल हो जाये। क्योंकि घनाक्षरी का प्रवाह समकल पर आधारित है। परन्तु दो विषमकलों के मध्य 12 से शुरू होनेवाला शब्द आ सकता है।

जैसे द्विजदेव का एक उदाहरण देखें।

घहरि घहरि घन सघन चहूंधा घेरि
छहरि छहरि विष बूंद बरसावै ना।
'द्विजदेव' की सों अब चूक मत दांव एरे
पातकी पपीहा तू पिया की धुनि गावै ना।
फेरि ऐसो औसर न ऐहै तेरे हाथ एरे
मटकि मटकि मोर सोर तू मचावै ना ।
हौं तो बिन प्रान प्रान चहत तज्योई अब
कत नभचन्द तू अकास चढ़ि धावै ना।।

'तू पिया की' में दो विषमकलों के मध्य 12 से शुरू होने वाले शब्द को देखें। और भी बताए हुये नियमों पर गौर करें। मुझे आशा है इन नियमों का पालन करते हुए आप सफल घनाक्षरी का सृजन कर सकेंगे।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया

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