Saturday, April 20, 2019

32 मात्रिक छंद "जाग उठो हे वीर जवानों"

जाग उठो हे वीर जवानों, तुमने अब तक बहुत सहा है।
त्यज दो आज नींद ये गहरी, देश तुम्हें ये बुला रहा है।।
छोड़ो आलस का अब आँचल, अरि-ऐंठन का कर दो मर्दन।
टूटो मृग झुंडों के ऊपर, गर्जन करते केहरि सम बन।।1।।

संकट के घन उमड़ रहे हैं, सकल देश के आज गगन में।
व्यापक जोर अराजकता का, फैला भारत के जन-मन में।।
घिरा हुआ है आज देश ये, चहुँ दिशि से अरि की सेना से।
नीति युद्ध की टपक रही है, आज पड़ौसी के नैना से।।2।।

भूल गयी है उन्नति का पथ, इधर इसी की सब सन्ताने।
भटक गयी है सत्य डगर से, स्वारथ के वे पहने बाने।।
दीवारों में सेंध लगाये, वे मिल कर अपने ही घर की।
धर्म कर्म अपना बिसरा कर, ठोकर खाय रही दर दर की।।3।।

आज चला जा रहा देश ये, अवनति के गड्ढे में गहरे।
विस्तृत नभ मंडल में इसके, पतन पताका भारी फहरे।।
त्राहि त्राहि अति घोर मची है, आज देश के हर कोने में।
पड़ी हुयी सारी जनता है, अंधी हो रोने धोने में।।4।।

अब तो जाग जवानों जाओ, तुम अदम्य साहस उर में धर।
काली बन रिपु के सीने का, शोणित पीओ अंजलि भर भर।।
सकल विश्व को तुम दिखलादो, शेखर, भगत सिंह सा बन कर।
वीरों की यह पावन भू है, वीर सदा इस के हैं सहचर।।5।।

बन पटेल, गांधी, सुभाष तुम, भारत भू का मान बढ़ाओ।
देश जाति अरु राष्ट्र-धर्म हित, प्राणों की बलि आज चढ़ाओ।।
मोहन बन कर के जन जन को, तुम गीता का पाठ पढ़ाओ।
भूले भटके राही को मिल, सत्य सनातन राह दिखाओ।।6।।

32 मात्रिक छंद विधान

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
05-06-2016

Friday, April 19, 2019

ग़ज़ल (यही बस मन में ठाना है)

आज के नेताओं पर एक मुसलसल ग़ज़ल

बह्र:- 1222   1222

यही बस मन में ठाना है,
पराया माल खाना है।

डकारें हम भला क्यों लें,
जो खाया पच वो जाना है।

यही लाये लिखा के हम,
कि माले मुफ़्त पाना है।

हमारी सूँघ ले जाए,
जहाँ फौकट का दाना है।

बँधाएँ आस हम झूठी,
गरीबी को हटाना है।

गरीबी गर नहीं हटती,
गरीबों को मिटाना है।

जहाँ दंगे लड़ाई हो,
वहीं हमरा ठिकाना है।

सियासत कर बने लीडर,
यही तो अब जमाना है।

हमें जनता से क्या लेना,
'नमन' बस पद बचाना है।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
26-09-17

ग़ज़ल (पड़े मुझको न क्षण भर कल)

बह्र:- 1222  1222

पड़े मुझको न क्षण भर कल,
मेरा मन है विकल प्रति पल।

मची मन में विकट हलचल,
बिना तेरे न कोई हल।

नहीं अब और जीना है,
ये दुनिया रोज करती छल।

सहन करने का इस तन में,
बचा है अब नहीं कुछ बल।

हुआ यादों में तेरी खो,
कलेजा राख तिल तिल जल।

तड़पता याद करके जी
हुआ है जब से तू ओझल।

'नमन' कितना जलाओगे,
सजन जिद छोड़ अब घर चल।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
29-12-18

ग़ज़ल (न हो अब यूँ खफ़ा दोस्त)

बह्र:- 1222   1221

न हो अब यूँ खफ़ा दोस्त,
बता मेरी ख़ता दोस्त।

चलो अब मान जा दोस्त,
नहीं इतना सता दोस्त।

ज़रा भी है न बर्दाश्त,
तेरा ये फ़ासला दोस्त।

तेरे बिन रुक गये बोल,
तु ही मेरी सदा दोस्त

नहीं जब तू मेरे पास,
लगे सूनी फ़ज़ा दोस्त।

ये तुझ से ख़ल्क आबाद,
मेरी तुझ बिन कज़ा दोस्त।

फ़लक पे जब तलक चाँद,
'नमन' का आसरा दोस्त।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
20-10-17

ग़ज़ल (अगर तुम पास होते)

बह्र:- 1222   122

अगर तुम पास होते,
सुखद आभास होते।

जो हँस के टालते ग़म,
तो क्यों फिर_उदास होते।

न रखते मन में चिंता,
बड़े बिंदास होते।

अगर हो प्रेम सच्चा,
अडिग विश्वास होते।

लड़ें जो हक़ की खातिर,
सभी की आस होते।

रहें डूबे जो मय में,
नशे के दास होते।

भला सोचें जो सब का,
'नमन' वे खास होते।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
19-10-17

ग़ज़ल (तेरे वास्ते घर सदा ये)

बह्र:- 122   122   122   122

तेरे वास्ते घर सदा ये खुला है,
ये दिल मैंने केवल तुझे ही दिया है।

तगाफ़ुल नहीं और बर्दाश्त होता,
तेरी बदगुमानी मेरी तो कज़ा है।

तू वापस चली आ यही मेरी मन्नत,
किसी से नहीं कोई मुझको गिला है।

समझ मत हँसी देख मुझको न है ग़म,
ये चेह्रा तुझे देख कर ही खिला है।

लगें मुझको आसेब से ये शजर सब,
जलन दे सहर और चुभती सबा है।

मैं तड़पा बहुत हूँ जला भी बहुत हूँ,
धुआँ ये उसी आग का दिख रहा है।

'नमन' की यही इल्तिज़ा आज आखिर,
बसा भी दे घर ये जो सूना पड़ा है।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
8-1-2017

Wednesday, April 17, 2019

पवन छंद "श्याम शरण"

श्याम सलोने, हृदय बसत है।
दर्श बिना ये, मन तरसत है।।
भक्ति नाथ दें, कमल चरण की।
शक्ति मुझे दें, अभय शरण की।।

पातक मैं तो, जनम जनम का।
मैं नहिं जानूँ, मरम धरम का।।
मैं अब आया, विकल हृदय ले।
श्याम बिहारी, हर भव भय ले।।

मोहन घूमे, जिन गलियन में।
वेणु बजाई, जिस जिस वन में।।
चूम रहा वे, सब पथ ब्रज के।
माथ धरूँ मैं, कण उस रज के।।

हीन बना मैं, सब कुछ बिसरा।
दीन बना मैं, दर पर पसरा।।
भीख कृपा की, अब नटवर दे।
वृष्टि दया की, सर पर कर दे।।
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लक्षण छंद:-
"भातनसा" से, 'पवन' सजत है।
पाँच व सप्ता, वरणन यति है।।

"भातनसा" = भगण तगण नगण सगण

211   221  111  112 = 12 वर्ण, यति 5,7
चार चरण दो दो समतुकांत।
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
19-06-17

पद्ममाला छंद "माँ के आँसू"

आँख में अश्रु लाती हो।
बाद में तू छुपाती हो।।
नैन से लो गिरे मोती।
आज तू मात क्यों रोती।।

पुत्र सारे हुए न्यारे।
जो तुझे प्राण से प्यारे।।
स्वार्थ के हैं सभी नाते।
आँख में नीर क्यों माते।।

रीत ये तो चली आई।
हैं न बेटे सगे भाई।।
व्यर्थ संसार में सारे।
नैन से क्यों झरे तारे।।

ईश की आस ही सच्ची।
और सारी सदा कच्ची।।
भक्त की टेक ले वे ही।
धीर हो सोच तू ये ही।।
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लक्षण छंद:-

"रारगागा" रखो वर्णा।
'पद्ममाला' रचो छंदा।।

"रारगागा" =  [रगण रगण गुरु गुरु]
(212  212  2 2)
8 वर्ण/चरण,4 चरण, 2-2 चरण समतुकांत।
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
27-01-19

पंचचामर छंद "देहाभिमान"

पंचचामर छंद / नाराच छंद

कभी न रूप, रंग को, महत्त्व आप दीजिये।
अनित्य ही सदैव ये, विचार आप कीजिये।।
समस्त लोग दास हैं, परन्तु देह तुष्टि के।
नये उपाय ढूँढते, सभी शरीर पुष्टि के।।

शरीर का निखार तो, टिके न चार रोज भी।
मुखारविंद का रहे, न दीप्त नित्य ओज भी।।
तनाभिमान त्याग दें, कभी न नित्य देह है।
असार देह में बसा, परन्तु घोर नेह है।।

समस्त कार्य ईश के, मनुष्य तो निमित्त है।
अचेष्ट देह सर्वथा, चलायमान चित्त है।।
अधीन चित्त प्राण के, अधीन प्राण शक्ति के।
अरूप ब्रह्म-शक्ति ये, टिकी सदैव भक्ति के।।

अतृप्त ही रहे सदा, मलीन देह वासना।
तुरन्त आप त्याग दें, शरीर की उपासना।।
स्वरूप 'बासुदेव' का, समस्त विश्व में लखें।
प्रसार दिव्य भक्ति का, समग्र देह में चखें।।
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पंचचामर छंद / नाराच छंद विधान -

पंचचामर छंद जो कि नाराच छंद के नाम से भी जाना जाता है, १६ वर्ण प्रति पद का वर्णिक छंद है।

लघु गुरु x 8 = 16 वर्ण, यति 8+8 वर्ण पर। चार पद दो दो समतुकांत।
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
4-07-17

Tuesday, April 16, 2019

ताटंक छंद "नारी की पीड़ा"

सदियों से भारत की नारी, पीड़ा सहती आयी हो।
सिखलाया बचपन से जाता, तुम तो सदा परायी हो।
बात बात में टोका जाता, दूजे घर में जाना है।
जन्म लिया क्या यही लिखा कर? केवल झिड़की खाना है।।1।।

घोर उपेक्षा की राहों की, तय करती आयी दूरी।
नर-समाज में हुई नहीं थी, आस कभी तेरी पूरी।
तेरे थे अधिकार संकुचित, जरा नहीं थी आज़ादी
नारी तुम केवल साधन थी, बढ़वाने की आबादी।।2।।

बंधनकारी तेरे वास्ते, आज्ञा शास्त्रों की नारी।
घर के अंदर कैद रही तुम, रीत रिवाजों की मारी।
तेरे सर पर सदा जरूरी, किसी एक नर का साया।
वह पति या फिर पिता, पुत्र हो, आवश्यक उसकी छाया।।3।।

देश गुलामी में जब जकड़ा, तेरी पीड़ा थी भारी।
यवनों की कामुक नज़रों का, केंद्र देह तेरा नारी।
कर गह यवन पकड़ ले जाते, शासक उठवाते डोली।
गाय कसाई घर जाती लख, बन्द रही सबकी बोली।।4।।

यौवन की मदमाती नारी, भारी थी जिम्मेदारी।
तेरे हित पीछे समाज में, इज्जत पहले थी प्यारी।
पीहर छुटकारा पाने को, बाल अवस्था में व्याहे।
दे दहेज का नाम श्वसुर-गृह, कीमत मुँहमाँगी चाहे।।5।।

घृणित रीतियाँ ये अपनाना, कैसी तब थी लाचारी।
आन, अस्मिता की रक्षा की, तुम्ही मोहरा थी नारी।
सदियों की ये तुझे गुलामीे, गहरी निद्रा में लायी।
पर स्वतन्त्रता नारी तुझको, अब तक उठा नहीं पायी।।6।।

हुआ सवेरा कभी देश में, पूरा रवि नभ में छाया।
पर समाज इस दास्य-नींद से, अब तक जाग नहीं पाया।
नारी नारी की उन्नति में, सबसे तगड़ा रोड़ा है।
घर से ही पनपे दहेज अरु, आडम्बर का फोड़ा है।।7।।

नहीं उमंगें और न उत्सव, जब धरती पे आती हो।
नेग बधाई बँटे न कुछ भी, हृदय न तुम हर्षाती हो।
कर्ज समझ के मात पिता भी, निर्मोही बन जाते हैं।
खींच लकीरें लिंग-भेद की, भेद-भाव दर्शाते हैं।।8।।

सभ्य देश में समझी जाती, जन्म पूर्व पथ की रोड़ी।
हद तो अब विज्ञान रहा कर, कसर नहीं कुछ भी छोड़ी।
इस समाज में भ्रूण-परीक्षण, लाज छोड़ तेरा होता।
गर्भ-मध्य तेरी हत्या कर, मानव मानवता खोता।।9।।

घर से विदा तुझे करने की, चिंता जब लग जाती है।
मात पिता के आड़े दुविधा, जब दहेज की आती है।
छलनी होता मन जब सुनती, घर में इसी कहानी को।
कोमल मन बेचैन कोसता, बोझिल बनी जवानी को।।10।।

पली हुई नाजों से कन्या, जब पति-गृह में है आती।
सास बहू में घोर लड़ाई, अधिकारों की छा जाती।
माँ की ममता मिल पाती क्या, पीहर में जो छोड़ी थी।
छिन्न भिन्न होने लग जाती, आशाएँ जो जोड़ी थी।।11।।

तेरी पीड़ा लख इस जग में, कोई सीर नहीं बाँटा।
इस समाज ने तुझे सदा से, समझा आँखों का काँटा।
जीवन की गाड़ी के पहिये, नर नारी दोनों होते।
नारी जिसने सहा सहा ही, 'नमन' उसे जगते सोते।।12।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
28-06-2016

ताटंक छंद "विधान"

ताटंक छंद सम पद मात्रिक छंद है। इस छंद में चार पद होते हैं, जिनमें प्रति पद 30 मात्राएँ होती हैं।

प्रत्येक पद दो विभाग में बंटा हुआ रहता है जिनकी यति 16-14 मात्रा पर निर्धारित होती है। अर्थात विषम चरण 16 मात्राओं का और सम चरण 14 मात्राओं का होता है। दो-दो पदों की तुकान्तता का नियम है।

प्रथम चरण यानि विषम चरण के अन्त को लेकर कोई विशेष आग्रह नहीं है। किन्तु, पदान्त तीन गुरुओं से होना अनिवार्य है। यानी सम चरण का अंत 3 गुरु से होना आवश्यक है।

16 मात्रिक वाले चरण का विधान और मात्रा बाँट ठीक चौपाई छंद वाला है। 14 मात्रिक चरण की अंतिम 6 मात्रा सदैव 3 गुरु होती है तथा बची हुई 8 मात्राएँ दो चौकल हो सकती हैं या फिर एक अठकल हो सकती है। चौकल और अठकल के सभी नियम लागू होंगे।

बासुदेव अग्रवाल नमन
तिनसुकिया

Thursday, April 11, 2019

हरिगीतिका छंद "माँ और उसका लाल"

ये दृश्य भीषण बाढ़ का है गाँव पूरा घिर गया।
भगदड़ मची चारों तरफ ही नीर प्लावित सब भया।।
माँ एक इस में घिर गयी है संग नन्हे लाल का।
वह कूद इस में है पड़ी रख आसरा जग पाल का।।

आकंठ डूबी बाढ़ में माँ माथ पर ले छाबड़ी।
है तेज धारा मात को पर क्या भला इससे पड़ी।।
वह पार विपदा को करे अति शीघ्र बस मन भाव ये।
सर्वस्व उसका लाल सर पर है सुरक्षित चाव ये।।

सन्तान से बढ़कर नहीं कुछ भी धरोहर मात की।
निज लाल के हित के लिये चिंता करे हर बात की।।
माँ जूझती, संकट अकेली लाख भी आये सहे।
मर मर जियें हँस के सदा पर लाल उसका खुश रहे।।

बाधा नहीं कोई मुसीबत पार करना ध्येय हो।
मन में उमंगें हो अगर हर कार्य करना श्रेय हो।।
हो चाह मन में राह मिलती पाँव नर आगे बढ़ा।
फिर कूद पड़ इस भव भँवर में भंग बढ़ने की चढ़ा।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
21-09-18

कामरूप छंद "गरीबों की दुनिया"

कामरूप छंद / वैताल छंद

कैसी गरीबी, बदनसीबी, दिन सके नहिं काट।
हालात माली, पेट खाली, वस्त्र बस हैं टाट।।
अति छिन्न कुटिया, भग्न खटिया, सार इसमें काम।
है भूमि बिस्तर, छत्त अंबर, जी रहे अविराम।।

बच्चे अशिक्षित, घोर शोषित, सकल सुविधा हीन।
जन्मे अभागे, भीख माँगे, जुर्म में या लीन।।
इक दूसरे से, नित लड़ें ये, गालियाँ बक घोर।
झट थामते फिर, भूल किर किर, प्रीत की मृदु डोर।।

घर में न आटा, वस्तु घाटा, सह रहे किस भांति।
अति सख्त जीवन, क्षीण यौवन, कुछ न इनको शांति।।
पर ये सुखी हैं, नहिं दुखी हैं, मग्न अपने माँहि।
मिलजुल बिताये, दिन सुहाये, पर शिकायत नाँहि।।

इनकी जरूरत, खूब सीमित, कम बहुत सामान।
पर काम चलता, कुछ न रुकता, सब करे आसान।।
हँस के बितानी, जिंदगानी, मन्त्र मन यह धार।
जीवन बिताते, काट देते, दीनता दुश्वार।।

कामरूप छंद / वैताल छंद विधान

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
12-11-17

आल्हा छंद "समय"

आल्हा छंद / वीर छंद

कौन समय को रख सकता है, अपनी मुट्ठी में कर बंद।
समय-धार नित बहती रहती, कभी न ये पड़ती है मंद।।
साथ समय के चलना सीखें, मिला सभी से अपना हाथ।
ढल जातें जो समय देख के, देता समय उन्हीं का साथ।।

काल-चक्र बलवान बड़ा है, उस पर टिकी हुई ये सृष्टि।
नियत समय पर फसलें उगती, और बादलों से भी वृष्टि।।
वसुधा घूर्णन, ऋतु परिवर्तन, पतझड़ या मौसम शालीन।
धूप छाँव अरु रात दिवस भी, सभी समय के हैं आधीन।।

वापस कभी नहीं आता है, एक बार जो छूटा तीर।
तल को देख सदा बढ़ता है, उल्टा कभी न बहता नीर।।
तीर नीर सम चाल समय की, कभी समय की करें न चूक।
एक बार जो चूक गये तो, रहती जीवन भर फिर हूक।।

नव आशा, विश्वास हृदय में, सदा रखें जो हो गंभीर।
निज कामों में मग्न रहें जो, बाधाओं से हो न अधीर।।
ऐसे नर विचलित नहिं होते, देख समय की टेढ़ी चाल।
एक समान लगे उनको तो, भला बुरा दोनों ही काल।।

मोल समय का जो पहचानें, दृढ़ संकल्प हृदय में धार।
सत्य मार्ग पर आगे बढ़ते, हार कभी न करें स्वीकार।।
हर संकट में अटल रहें जो, कछु न प्रलोभन उन्हें लुभाय।
जग के ही हित में रहतें जो, कालजयी नर वे कहलाय।।

समय कभी आहट नहिं देता, यह तो आता है चुपचाप।
सफल जगत में वे नर होते, लेते इसको पहले भाँप।।
काल बन्धनों से ऊपर उठ, नेकी के जो करतें काम।
समय लिखे ऐसों की गाथा, अमर करें वे जग में नाम।।

आल्हा छंद / वीर छंद विधान

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
06-03-2018

Thursday, April 4, 2019

भजन "गजवदन-भजन अब मन कर"

(मात्रा रहित रचना)

गजवदन-भजन अब मन कर।
सफल समस्त जन्म नर कर।।

गज-मस्तक पर सजत वक्र कर,
चरण खम्भ सम कमल-नयन वर,
वरद-हस्त हरपल रख सर पर।
गजवदन-भजन अब मन कर।
सफल समस्त जन्म नर कर।।

शन्कर-नन्दन कष्ट सब हरण,
प्रथम-नमन मम तव अर्पण,
भव-बन्धन-हरण सकल कर।
गजवदन-भजन अब मन कर।
सफल समस्त जन्म नर कर।।

डगर डगर भटकत भ्रमर-मन,
मद, मत्सर मध्य लगत यह तन,
वन्दन भक्त करत सन्कट हर।
गजवदन-भजन अब मन कर।
सफल समस्त जन्म नर कर।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
05-09-2016