सदियों से भारत की नारी, पीड़ा सहती आयी हो।
सिखलाया बचपन से जाता, तुम तो सदा परायी हो।
बात बात में टोका जाता, दूजे घर में जाना है।
जन्म लिया क्या यही लिखा कर? केवल झिड़की खाना है।।1।।
घोर उपेक्षा की राहों की, तय करती आयी दूरी।
नर-समाज में हुई नहीं थी, आस कभी तेरी पूरी।
तेरे थे अधिकार संकुचित, जरा नहीं थी आज़ादी
नारी तुम केवल साधन थी, बढ़वाने की आबादी।।2।।
बंधनकारी तेरे वास्ते, आज्ञा शास्त्रों की नारी।
घर के अंदर कैद रही तुम, रीत रिवाजों की मारी।
तेरे सर पर सदा जरूरी, किसी एक नर का साया।
वह पति या फिर पिता, पुत्र हो, आवश्यक उसकी छाया।।3।।
देश गुलामी में जब जकड़ा, तेरी पीड़ा थी भारी।
यवनों की कामुक नज़रों का, केंद्र देह तेरा नारी।
कर गह यवन पकड़ ले जाते, शासक उठवाते डोली।
गाय कसाई घर जाती लख, बन्द रही सबकी बोली।।4।।
यौवन की मदमाती नारी, भारी थी जिम्मेदारी।
तेरे हित पीछे समाज में, इज्जत पहले थी प्यारी।
पीहर छुटकारा पाने को, बाल अवस्था में व्याहे।
दे दहेज का नाम श्वसुर-गृह, कीमत मुँहमाँगी चाहे।।5।।
घृणित रीतियाँ ये अपनाना, कैसी तब थी लाचारी।
आन, अस्मिता की रक्षा की, तुम्ही मोहरा थी नारी।
सदियों की ये तुझे गुलामीे, गहरी निद्रा में लायी।
पर स्वतन्त्रता नारी तुझको, अब तक उठा नहीं पायी।।6।।
हुआ सवेरा कभी देश में, पूरा रवि नभ में छाया।
पर समाज इस दास्य-नींद से, अब तक जाग नहीं पाया।
नारी नारी की उन्नति में, सबसे तगड़ा रोड़ा है।
घर से ही पनपे दहेज अरु, आडम्बर का फोड़ा है।।7।।
नहीं उमंगें और न उत्सव, जब धरती पे आती हो।
नेग बधाई बँटे न कुछ भी, हृदय न तुम हर्षाती हो।
कर्ज समझ के मात पिता भी, निर्मोही बन जाते हैं।
खींच लकीरें लिंग-भेद की, भेद-भाव दर्शाते हैं।।8।।
सभ्य देश में समझी जाती, जन्म पूर्व पथ की रोड़ी।
हद तो अब विज्ञान रहा कर, कसर नहीं कुछ भी छोड़ी।
इस समाज में भ्रूण-परीक्षण, लाज छोड़ तेरा होता।
गर्भ-मध्य तेरी हत्या कर, मानव मानवता खोता।।9।।
घर से विदा तुझे करने की, चिंता जब लग जाती है।
मात पिता के आड़े दुविधा, जब दहेज की आती है।
छलनी होता मन जब सुनती, घर में इसी कहानी को।
कोमल मन बेचैन कोसता, बोझिल बनी जवानी को।।10।।
पली हुई नाजों से कन्या, जब पति-गृह में है आती।
सास बहू में घोर लड़ाई, अधिकारों की छा जाती।
माँ की ममता मिल पाती क्या, पीहर में जो छोड़ी थी।
छिन्न भिन्न होने लग जाती, आशाएँ जो जोड़ी थी।।11।।
तेरी पीड़ा लख इस जग में, कोई सीर नहीं बाँटा।
इस समाज ने तुझे सदा से, समझा आँखों का काँटा।
जीवन की गाड़ी के पहिये, नर नारी दोनों होते।
नारी जिसने सहा सहा ही, 'नमन' उसे जगते सोते।।12।।
बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
28-06-2016
सिखलाया बचपन से जाता, तुम तो सदा परायी हो।
बात बात में टोका जाता, दूजे घर में जाना है।
जन्म लिया क्या यही लिखा कर? केवल झिड़की खाना है।।1।।
घोर उपेक्षा की राहों की, तय करती आयी दूरी।
नर-समाज में हुई नहीं थी, आस कभी तेरी पूरी।
तेरे थे अधिकार संकुचित, जरा नहीं थी आज़ादी
नारी तुम केवल साधन थी, बढ़वाने की आबादी।।2।।
बंधनकारी तेरे वास्ते, आज्ञा शास्त्रों की नारी।
घर के अंदर कैद रही तुम, रीत रिवाजों की मारी।
तेरे सर पर सदा जरूरी, किसी एक नर का साया।
वह पति या फिर पिता, पुत्र हो, आवश्यक उसकी छाया।।3।।
देश गुलामी में जब जकड़ा, तेरी पीड़ा थी भारी।
यवनों की कामुक नज़रों का, केंद्र देह तेरा नारी।
कर गह यवन पकड़ ले जाते, शासक उठवाते डोली।
गाय कसाई घर जाती लख, बन्द रही सबकी बोली।।4।।
यौवन की मदमाती नारी, भारी थी जिम्मेदारी।
तेरे हित पीछे समाज में, इज्जत पहले थी प्यारी।
पीहर छुटकारा पाने को, बाल अवस्था में व्याहे।
दे दहेज का नाम श्वसुर-गृह, कीमत मुँहमाँगी चाहे।।5।।
घृणित रीतियाँ ये अपनाना, कैसी तब थी लाचारी।
आन, अस्मिता की रक्षा की, तुम्ही मोहरा थी नारी।
सदियों की ये तुझे गुलामीे, गहरी निद्रा में लायी।
पर स्वतन्त्रता नारी तुझको, अब तक उठा नहीं पायी।।6।।
हुआ सवेरा कभी देश में, पूरा रवि नभ में छाया।
पर समाज इस दास्य-नींद से, अब तक जाग नहीं पाया।
नारी नारी की उन्नति में, सबसे तगड़ा रोड़ा है।
घर से ही पनपे दहेज अरु, आडम्बर का फोड़ा है।।7।।
नहीं उमंगें और न उत्सव, जब धरती पे आती हो।
नेग बधाई बँटे न कुछ भी, हृदय न तुम हर्षाती हो।
कर्ज समझ के मात पिता भी, निर्मोही बन जाते हैं।
खींच लकीरें लिंग-भेद की, भेद-भाव दर्शाते हैं।।8।।
सभ्य देश में समझी जाती, जन्म पूर्व पथ की रोड़ी।
हद तो अब विज्ञान रहा कर, कसर नहीं कुछ भी छोड़ी।
इस समाज में भ्रूण-परीक्षण, लाज छोड़ तेरा होता।
गर्भ-मध्य तेरी हत्या कर, मानव मानवता खोता।।9।।
घर से विदा तुझे करने की, चिंता जब लग जाती है।
मात पिता के आड़े दुविधा, जब दहेज की आती है।
छलनी होता मन जब सुनती, घर में इसी कहानी को।
कोमल मन बेचैन कोसता, बोझिल बनी जवानी को।।10।।
पली हुई नाजों से कन्या, जब पति-गृह में है आती।
सास बहू में घोर लड़ाई, अधिकारों की छा जाती।
माँ की ममता मिल पाती क्या, पीहर में जो छोड़ी थी।
छिन्न भिन्न होने लग जाती, आशाएँ जो जोड़ी थी।।11।।
तेरी पीड़ा लख इस जग में, कोई सीर नहीं बाँटा।
इस समाज ने तुझे सदा से, समझा आँखों का काँटा।
जीवन की गाड़ी के पहिये, नर नारी दोनों होते।
नारी जिसने सहा सहा ही, 'नमन' उसे जगते सोते।।12।।
बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
28-06-2016
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