Saturday, May 22, 2021

पंचिक विधा और स्वरूप

(पंचिक)

अंग्रेजी में हास्य विनोद की लघु कविता के रूप में लिमरिक्स एक प्राचीन विधा है। यह कुल पाँच पंक्तियों की लघु कविता होती है जिसकी एक विशिष्ट लय रहती है। यह लय विशिष्ट तुकांतता और सिलेबल की गिनती पर आधारित रहती है। तुकांतता की विशेषता इस अर्थ में है कि इसकी पाँच पंक्तियों में दो अलग अलग तुकांतता रहती है। पंक्ति संख्या एक, दो, पाँच में एक तुकांतता रहती है तथा पंक्ति संख्या तीन तथा चार में दूसरी तुकांतता रहती है। पंक्ति संख्या एक, दो, पाँच में आठ या नौ सिलेबल रहते हैं जबकि पंक्ति संख्या तीन, चार में पाँच या छह सिलेबल रहते हैं।

राजस्थानी भाषा में इस विधा को श्री मोहन आलोक जी ने डाँखला के नाम से विकसित किया है। डाँखला के नाम से उनकी एक पुस्तक प्रकाशित हुई है जिसमें राजस्धानी भाषा में उनके दो सौ मजेदार डाँखले संग्रहित हैं।

हिन्दी में यह विधा हाइकु, ताँका, सेदोका जैसी अन्य विदेशी विधाओं जितनी प्रसिद्धि नहीं पा सकी है। काका हाथरसी जी के तीन तुक के तुक्तक मिलते हैं जो लिमरिक्स से अलग एक स्वतंत्र विधा है।उनके दो तुक्तक देखें।

"जाड़े में आग की, खाने में साग की
गाने में राग की, महिमा अनंत है।"

"रिश्ते में साली की, पान में छाली की 
बगिया में माली की, महिमा अनंत है।"

अंग्रेजी की लिमरिक्स की विधा को हिन्दी में एक नाम देकर नियम बद्ध करने का मैंने प्रयास किया है जिसे मैं इस आलेख के माध्यम से आप सबके समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ। 

लिमरिक्स की संरचना को दृष्टिगत रखते हुये इसका सुगम सा नाम "पंचिक" दिया है। इसका पाँच पंक्ति का होना एक गुण है और दूसरा गुण है अंग्रेजी भाषा का शब्द 'पंच' जिसका अर्थ छेदन, चुभन, कचोटना, मुष्टिक आघात इत्यादि है। लिमरिक यानि पंचिक की पंक्तियों में गुदगुदाहट पैदा करने वाली एक मीठी चुभन होनी चाहिए जो पाठक के हृदय को एकाएक छेद सके। यह चुभन या आघात कटु व्यंग के रूप में हो सकता है, उन्मुक्त हास्य हो सकता है या तार्किकता से मुक्त बिल्कुल अटपटा उटपटांग सा प्रहसन हो सकता है जो पाठक को अपने में समेट हल्का हल्का गुदगुदाता रहे। पंचिक कोई भी विचार मन में लेकर रचा जा सकता है। यह बाल कविता के रूप में भी काफी प्रभावी सिद्ध हो सकता है। हँसी हँसी में बच्चों को सामान्य ज्ञान दे सकता है।

आंग्ल भाषा की परंपरा के अनुसार पंचिक की प्रथम पंक्ति में किसी काल्पनिक पात्र को उसके गुण के आधार पर एक मजाकिया सा नाम देकर व्यंग का निशाना बनाया जाता है। किसी शहर या गाँव के नाम को भी इसी प्रकार विशुद्ध हास्य के रूप में लिया जा सकता है। दूसरी, तीसरी, चौथी पंक्ति में ऐसे पात्र के गुण उभारे जाते हैं। पाँचवी पंक्ति पटाक्षेप की चुभती हुई यानि पंच करती हुई पंक्ति होती है। इस पंक्ति में रचनाकार को तार्किकता इत्यादि में अधिक उलझने की आवश्यकता नहीं है। प्रथम और दूसरी पंक्ति से तुक मिलाते हुये कुछ या पूरा लीक से हट कर चटपटा पटाक्षेप कर दें।

जहाँ तक पंचिक की पंक्तियों के विन्यास का प्रश्न है, यह किसी भी मात्रिक या वर्णिक विन्यास में बँधा हुआ नहीं है। फिर भी लयकारी की प्रमुखता है। पंक्तियों के वाचन में एक प्रवाह होना चाहिए। यह लय, गति ही इसे कविता का स्वरूप देती है। मैं यहाँ घनाक्षरी की लय को आधार बना कर कुछ दिशानिर्देश दे रहा हूँ।

घनाक्षरी की लय साधते हुये पंक्ति संख्या 1, 2, 5 में प्रति पंक्ति 14 से 18 तक वर्ण रख सकते हैं। घनाक्षरी के पद की प्रथम यति में 16 वर्ण रहते हैं पर इसमें यह रूढि नहीं है। यह ध्यान रहे कि लय रहे। 14 वर्ण हो तो गुरु वर्ण के शब्द अधिक रखें, 18 वर्ण हो तो लघु वर्ण के शब्द अधिक प्रयोग करें। इससे मात्राएँ समान होकर लय सधी रहेगी। पंक्ति संख्या 3 और 4 में प्रति पंक्ति 7 से 13 वर्ण तक रख सकते हैं। इसकी विशेषता दर्शाता मेरा एक पंचिक देखें:-

"अंगरेजी भाषा का जो खुराफाती लिमरिक,
हिन्दी में छायेगा अब बनकर 'पंचिक'।
व्यंग करने में पट्ठा पूरा टंच,
धूल ये चटाये मार मीठे पंच।
कवियों के हाथ लगा हथियार आणविक।।"

ऐतिहासिक धरोहर का परिचय देता एक बाल पंचिक:-

"लक्ष्मी बाई जी की न्यारी नगरी है झाँसी,
नाम से ही गद्दारों को दिख जाती फाँसी।
राणी जी की ऐसी धाक,
अंग्रेजों की नीची नाक,
सुन के फिरंगियों की चल जाती खाँसी।।"

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
14-09-20

Monday, May 17, 2021

कहमुकरी विवेचन

*कहमुकरी* साहित्यिक परिपेक्ष में:-

हिंदी किंवा संस्कृत साहित्य में अर्थचमत्कृति के अन्तर्गत दो अलंकार विशेष रूप से प्रयुक्त होते हैं,, पहला श्लेष व दूसरा छेकापहृति,, श्लेष में कहने वाला अलग अर्थ में कहता है व सुनने वाला उसका अलग अर्थ ग्रहण करता है,, पर छेकापहृति में प्रस्तुत को अस्वीकार व अप्रस्तुत को स्वीकार करवाया जाता है,,

कहमुकरीविधा छेकापहृति अलंकार का अनुपम उदाहरण है,, आईये देखते हैं एक उदाहरण:-

वा बिन रात न नीकी लागे
वा देखें हिय प्रीत ज जागे
अद्भुत करता वो छल छंदा
क्या सखि साजन? ना री चंदा

यहाँ प्रथम तीन पंक्तियां स्पष्ट रूप से साजन को प्रस्तुत कर रही है,, पर चौथी पंक्ति में उस प्रस्तुत को अस्वीकृत कर अप्रस्तुत (चंद्रमा) को स्वीकृत किया गया है,, यही इस विधा की विशेषता व काव्यसौंदर्य है।

वैयाकरणी दृष्टि से यह बड़ा सरल छंद है,, मूल रूप से इसके दो विधान प्रचलित है,, प्रति चरण 16 मात्रायें, चार चरण व प्रति चरण 15 मात्रायें चार चरण,

गेयता अधिकाधिक द्विकल के प्रयोग से स्पष्ट होती है इस छंद में,, इस लिए इसके वाचिक मात्राविन्यास निम्न हैं:-

या तो 22 22 22 22
या 22 22 22 21

इसके चार चरणों में दो दो चरण समतुकांत रखने की परिपाटी है।

इस विधा में एक प्रश्न बहुत बार उठता है कि,, क्या सखि साजन,,, यहाँ,, साजन, के स्थान पर अन्य शब्द प्रयोज्य है या नहीं? कुछ विद्वान इसका निषेध करते हैं व कुछ इसे ग्राह्य मानते है।

इसे पनघट पर जल भरती सखियों की चूहलबाजियों से उत्पन्न विधा माना गया है,, इसलिए स्वाभाविक रूप से,, साजन,, शब्द के प्रति पूर्वाग्रह,, समझ में आता है, इस विवाद को दूर करने के लिए व इसमें नवाचार को मान्यता देने के लिए, आजकल *नवकहमुकरी* शब्द भी काम में लिया जाता है,, जिसमें,, साजन,, के स्थान पर कोई अन्य शब्द प्रयुक्त हो,,

बहुत ही सरस व मनोरंजक विधा है,, जिसमें कवि का भावविलास व कथ्य चातुर्य अनुपम रूप से उजागर होता है,,

आईये कुछ उदाहरण और देखें

(नवकहमुकरी) 

पहले पहल जिया घबरावे
का करना कछु समझ न आवे
धीरे धीरे उसमे खोई
का सखि शय्या? अरी! रसोई

(कहमुकरी) 

हर पल साथ, नजर ना आवे
मन में झलक दिखा छिप जावे
ऐसे अद्भुत हैं वो कंता
ऐ सखि साजन? ना भगवंता

सादर समीक्षार्थ व अभ्यासार्थ:-

जय गोविंद शर्मा
लोसल

Sunday, May 16, 2021

विविध मुक्तक -8

ओ ख़ुदा मेरे तु बता मुझे मेरा तुझसे एक सवाल है,
जो ये ज़िन्दगी तुने मुझको दी उसे जीने में क्यों मलाल है,
इसे अब ख़ुदा तु लेले वापस नहीं बोझ और मैं सह सकूँ,
तेरी ज़िन्दगी को अब_और जीना मेरे लिए तो मुहाल है।

(11212*4)
*********

जहाँ भी आब-ओ-दाना है,
वहीं समझो ठिकाना है,
तु लेकर साथ क्या आया,
यहीं सब कुछ कमाना है।।

(1222*2)
*********

जमाने की जफ़ा ने मार डाला।
खिलाफ़त की सदा ने मार डाला।
रही कुछ भी कसर बाकी अगर तो।
तुम्हारी बददुआने मार डाला।

(1222 1222 122)
***********

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
05-01-18

समान सवैया "मुक्तक"


वही दोहराया भारत ने, सदियों से जो होता आया,
बाहर के लोगों से मिल जब, गद्दारों ने देश लुटाया,
लोक तंत्र का अब तो युग है, सोच समझ पर वही पुरानी,
बंग धरा में अपनों ने ही, अपनों का फिर रक्त बहाया।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
10.05.21

Wednesday, May 12, 2021

मनहरण घनाक्षरी "राहुल पर व्यंग"

मनहरण घनाक्षरी

राजनायिकों के गले, मोदी का लगाना देख,
राहुल तिहारी नींद, उड़ने क्यों लगी है।

हाथ मिला हाथ झाड़, लेने की तिहारी रीत,
रीत गले लगाने की, यहाँ मन पगी है।

देश की परंपरा का, उपहास करो नित,
और आज तक किन्ही, बस महा ठगी है।

दुनिया से भाईचारा, कैसे है निभाया जाता,
तुझे क्या, तेरी तो बस, इटली ही सगी है।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
15-01-18

सार छंद "पुष्प"

सार छंद / ललितपद छंद

अहो पुष्प तुम देख रहे हो, खिलकर किसकी राहें।
भावभंगिमा में भरते हो, किसकी रह रह आहें।।
पुष्पित हो तुम पूर्ण रूप से, ऐंठे कौन घटा पर।
सम्मोहित हो रहे चाव से, जग की कौन छटा पर।।

लुभा रहे भ्रमरों को अपने, मधुर परागों से तुम।
गूँजित रहते मधुपरियों के, सुंदर गीतों से तुम।।
कौन खुशी में वैभव का यह, जीवन बिता रहे हो।
आज विश्व प्राणी को इठला, क्या तुम दिखा रहे हो।।

अपनी इस आभा पर प्यारे, क्यों इतना इतराते।
अपने थोड़े वैभव पर क्यों, फूले नहीं समाते।।
झूम रहे हो आज खुशी से, तुम जिन के ही श्रम से।
बिसरा बैठे उनको अपने, यौवन के इस भ्रम से।।

मत भूलो तुम होती है, किंचित् ये हरियाली।
चार दिनों के यौवन में ये, थोड़ी सी खुशियाली।।
आज हँसी के जीवन पर कल, क्रंदन तो छाता है।
वृक्षों में भी इस बसन्त पर, कल पतझड़ आता है।।

क्षणभंगुर इस जीवन पर तुम, मत इठलाओ प्यारे।
दल, मकरंद चार दिन में ही, हो जायेंगे न्यारे।।
जितनी खुशबू फैला सकते, जल्दी ही फैला लो।
हँसते खिलते खुशियाँ बाँटो, जीवन अमर बना लो।।

नेकी कर कुंए में डालो, और न जोड़ो नाता।
सब अपनी ज्वाला में जलते, कोई किसे न भाता।।
स्वार्थ भाव से जग यह चलता, इतराओ तुम काहे।
दूजों के श्रम-कण पर आश्रित, जग तो रहना चाहे।।


बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
13-05-16

Wednesday, May 5, 2021

ग़ज़ल (ढूँढूँ भला ख़ुदा की मैं रहमत)

बह्र:- 221  2121  1221  212

ढूँढूँ भला ख़ुदा की मैं रहमत कहाँ कहाँ,
अब क्या बताऊँ उसकी इनायत कहाँ कहाँ।

सहरा, नदी, पहाड़, समंदर ये दश्त सब,
दिखलाएँ सब ख़ुदा की ये वुसअत कहाँ कहाँ।

हर सिम्त हर तरह के दिखे उसके मोजिज़े,
जैसे ख़ुदा ने लिख दी इबारत कहाँ कहाँ।

अंदर जरा तो झाँकते अपने को भूल कर,
बाहर ख़ुदा की ढूँढते सूरत कहाँ कहाँ।

रुतबा-ओ-ज़िंदगी-ओ-नियामत ख़ुदा से तय,
इंसान फिर भी करता मशक्कत कहाँ कहाँ।

इंसानियत अता तो की इंसान को ख़ुदा,
फैला रहा वो देख तु दहशत कहाँ कहाँ।

कहता 'नमन' कि एक ख़ुदा है जहान में,
जैसे भी फिर हो उसकी इबादत कहाँ कहाँ।

सहरा = रेगिस्तान
दश्त = जंगल
वुअसत = फैलाव, विस्तार, सामर्थ्य
सिम्त = तरफ, ओर
मोजिज़े = चमत्कार (बहुवचन)

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
08-07-2017

ग़ज़ल (जब से देखा उन को मैं तो)

बह्र:- 2122  2122  2122  212

जब से देखा उन को मैं तो क़ैस जैसा बन गया,
अच्छा खासा जो था पहले क्या से अब क्या बन गया।

हाल कुछ ऐसा हुआ उनकी अदाएँ देख कर,
बन फ़साना सब की आँखों का मैं काँटा बन गया।

पेश क्या महफ़िल में कर दी इक लिखी ताज़ा ग़ज़ल,
घूरती सब की निगाहों का निशाना बन गया।

कामयाबी की बुलंदी पे गया गर चढ़ कोई,
हो सियासत में वो शामिल इक लुटेरा बन गया।

आये वो अच्छे दिनों का झुनझुना दे चल दिये,
देश के बहरों के कानों का वो बाजा बन गया।

लोगों की जो डाह में था इश्क़ का मेरा जुनूँ,
अब वो उन के जी को बहलाने का ज़रिया बन गया।

जो 'नमन' सब को समझता था महज कठपुतलियाँ,
आज वो जनता के हाथों खुद खिलौना बन गया।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
20-12-2018

ग़ज़ल (दीवाली पर जगमग जगमग)

बह्र:- 22 22 22 22 22 22 222

दीवाली पर जगमग जगमग जब सारे घर होते हैं,
आतिशबाज़ी धूम धड़ाके हर नुक्कड़ पर होते हैं।

पकवानों की खुशबू छायी, आरतियों के स्वर गूँजे,
त्योहारों के ये ही क्षण खुशियों के अवसर होते हैं।

अनदेखी परिणामों की कर जंगल नष्ट करें मानव,
इससे नदियों का जल सूखे बेघर वनचर होते हैं।

क्या कहिये ऐसों को जो रहतें तो शीशों के पीछे,
औरों की ख़ातिर उनके हाथों में पत्थर होते हैं।

कायर तो छुप वार करें या दूम दबा कर वे भागें,
रण में डट रिपु जो ललकारें वे ताकतवर होते हैं।

दुबके रहते घर के अंदर भारी सांसों को ले हम,
आपे से सरकार हमारे जब भी बाहर होते हैं।

कमज़ोरों पर ज़ोर दिखायें गेह उजाड़ें दीनों के,
बर्बर जो होते हैं वे अंदर से जर्जर होते हैं।

पर हित में विष पी कर के देवों के देव बनें शंकर,
त्यज कर स्वार्थ करें जो सेवा पूजित वे नर होते हैं।

दीन दुखी के दर्द 'नमन' जो कहते अपनी ग़ज़लों में,
वैसे ही कुछ खास सुख़नवर सच्चे शायर होते हैं।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
23-10-20

Sunday, April 25, 2021

समान सवैया मुक्तक

क्षणिक सुखों में खो कर पहले, नेह बन्धनों को त्यज भागो,
माथ झुका फिर स्वांग रचाओ, नीत दोहरी से तुम जागो,
जीम्मेदारी घर की केवल, नारी पर नहिँ निर्भर रहती,
पुरुष प्रकृति ने तुम्हें बनाया, ये अभिमान हृदय से त्यागो।

(समान सवैया)



मौक्तिका (शहीदों की शहादत)

सीता छंद आधारित = 2122*3+212
(पदांत 'मन में राखलो', समांत 'आज')

भेंट प्राणों की दी जिनने आन रखने देश की,
उन जवानों के हमैशा काज मन में राखलो।।
भूल जाना ना उन्हें तुम ऐ वतन के दोस्तों,
उन शहीदों की शहादत आज मन में राखलो।।

छोड़ के घरबार सारा सरहदों पे जो डटे,
बीहड़ों में जागकर के जूझ रातें दिन कटे।
बर्फ के अंबार में से जो बनायें रासते,
उन इरादों का ओ यारो राज मन में राखलो।।

हाथ उठते जब हजारों एक लय, सुर, ताल में,
वर्दियों में पाँव उठते धाक रहती चाल में।
आसमानों को हिलाती गूँज उनके कूच की,
उन उड़ाकों की सभी परवाज मन में राखलो।।

पर्वतों की चोटियों में तार पहले बाँधते,
बन्दरों से फिर लटक के चोटियाँ वे लाँघते।
प्रेत से प्रगटें अचानक दुश्मनों के सामने,
शत्रु की धड़कन की तुम आवाज मन में राखलो।।

खाइयों को खोदते वे और उनको पाटते,
प्यास उनको जब लगे तो ओस को ही चाटते।
बंकरों को घर बना के कोहनी बल लेट के,
गोलियों की बारिसों की गाज मन में राखलो।।

मस्तियाँ कैंपों में करते नाचते, गाते जहाँ,
साथ मिलके बाँटते ये ग़म, खुशी, दुख सब यहाँ।
याद घर की ये भुलाते हँस कभी तो रो कभी,
झूमती उन मस्तियों का साज मन में राखलो।।

ये अनेकों प्रान्त के हैं जात, मजहब, वेश के,
हिन्द की सेना सजाते वीर सैनिक देश के।
मोरचे पे जा डटें तो मुड़ के देखें ना कभी,
देश की जो वे बचाते लाज मन में राखलो।।

गीत इनकी वीरता के गा रही माँ भारती,
देश का हर नौजवाँ इनकी उतारे आरती।
सर झुका इनको 'नमन' कर मान इनपे तुम करो,
हिन्द की सेना का तुम सब नाज मन में राखलो।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
28-07-16

Wednesday, April 21, 2021

लावणी छंद आधारित गीत (आओ सब मिल कर संकल्प करें)

आओ सब मिल कर संकल्प करें।
चैत्र शुक्ल नवमी है कुछ तो, नूतन आज करें।
आओ सब मिल कर संकल्प करें॥

मर्यादा में रहना सीखें, सागर से बन कर हम सब।
सिखलाएँ इस में रहना हम, तोड़े कोई इसको जब।
मर्यादा के स्वामी की यह, धारण सीख करें।
आओ सब मिल कर संकल्प करें॥
 
मात पिता गुरु और बड़ों की, सेवा का हरदम मन हो।
भाई मित्र और सब के ही, लिए समर्पित ये तन हो।
समदर्शी सा बन कर सबसे, हम व्यवहार करें।
आओ सब मिल कर संकल्प करें॥

आज रामनवमी के दिन हम, दृढ हो कर व्रत यह लेवें।
दीन दुखी आरत जो भी हैं, उन्हें सहारा हम देवें।
राम-राज्य का सपना भू पर, हम साकार करें।
आओ सब मिल कर संकल्प करें॥

उत्तम आदर्शों को अपना, जीवन सफल बनाएँ हम।
कर चरित्र निर्माण स्वयं का, जग का दूर करें सब तम।
उत्तम बन कर पुरुषोत्तम को, हम सब 'नमन' करें।
आओ सब मिल कर संकल्प करें॥

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
15-04-16

Friday, April 16, 2021

मुक्तक (दुख, दर्द)

बेजुबां की पीड़ा का गर न दर्द सीने में,
सार कुछ नहीं फिर है इस जहाँ में जीने में।
मारते हो जीवों को ढूँढ़ते ख़ुदा को हो,
गर नहीं दया मन में क्या रखा मदीने में।

(212  1222)*2
*********

इस जमीं के सिवा कोई बिस्तर नहीं, आसमाँ के सिवा सर पे है छत नहीं।
मुफ़लिसी को गले से लगा खुश हैं हम, ये हमारे लिये कुछ मुसीबत नहीं।
उन अमीरों से पूछो जरा दोस्तों, जितना रब ने दिया उससे खुश हैं वो क्या।
पेट खाली भी हो तो न परवाह यहाँ, इस जमाने से फिर भी शिकायत नहीं।।

(212×8)
**********

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
28-06-17

राजस्थानी डाँखला (2)

(1)

ढोकलास गाँव रो यो ढोकलो हलवाइड़ो,
जिस्यो नाँव बिस्यो डोल ढोलकी सो भाइड़ो।
धोलै बालाँ री है सिर पर छँटणी,
लागै लिपटी है नारैलाँ री चटणी।
तण चालै जिंया यो ही गाँव रो जँवाइड़ो।।
*****
(2)

नेता बण्या जद से ही गाँव रा ये लप्पूजी,
राजनीति माँय बे चलाण लाग्या चप्पूजी।
बेसुरी अलापै राग,
सुण सारा जावै भाग।
बाजण लाग्या तब से ही गाँव में वे भप्पूजी।।
*****
(3)

रेल रा पुराना इंजन धुआँलाल सेठ जी,
कलकत्ता री गल्याँ माँय डोले जमा पेठ जी।
मुँह में दबा धोली नाल,
धुआँ छोड़े धुआँलाल,
पुलिस्यां के सागै पुग्या ठिकाणा में ठेठ जी।।
*****

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
5-11-20

Saturday, April 10, 2021

पड़ोसन (कुण्डलिया)

हो पड़ोस में आपके, कोई सुंदर नार।
पत्नी करती प्रार्थना, साजन नैना चार।
साजन नैना चार, रात दिन गुण वो गाते।
सजनी नित श्रृंगार, करे सैंया मन भाते।
मनमाफिक यदि आप, चाहते सजनी हो तो।
नई पड़ोसन एक,  बसालो सुंदर जो हो।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
22-09-2016

दोहे (लगन)

दोहा छंद

मन में धुन गहरी चढ़े, जग का रहे न भान।
कार्य असम्भव नर करे, विपद नहीं व्यवधान।।

तुलसी को जब धुन चढ़ी, हुआ रज्जु सम व्याल।
मीरा माधव प्रेम में, विष पी गयी कराल।।

ज्ञान प्राप्ति की धुन चढ़े, कालिदास सा मूढ़।
कवि कुल भूषण वो बने, काव्य रचे अति गूढ़।।

ज्ञानार्जन जब लक्ष्य हो, करलें चित्त अधीन।
ध्यान ध्येय पे राखलें, लखे सर्प ज्यों बीन।।

आस पास को भूल के, मन प्रेमी में लीन।
गहरा नाता जोड़िए, ज्यों पानी से मीन।।

अंतर में जब ज्ञान का, करता सूर्य प्रकाश।
अंधकार अज्ञान का, करे निशा सम नाश।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
12-10-2016

राधेश्यामी छंद "शशिकला"

राधेश्यामी छंद / मत्त सवैया

रात्री देवी के आँगन में, जब गगन मार्ग से शशि जाता।
शीतल किरणों को फैला कर, यह शुभ्र ज्योत्स्ना है छाता।।
कर व्योम मार्ग को आलोकित, बढ़ता मयंक नभ-मंडल पे।
आनन से छिटका मुस्काहट, दिन जैसा करे धरा तल पे।।

खेले जब आंखमिचौली यह, प्यारे तारों से मिलजुल के।
बादल समूह के पट में छिप, रह जाये कभी कभी घुल के।।
लुकछिप कर कभी देखता है, रख ओट मेघ के अंबर की।
घूंघट-पट से नव वधु जैसे, निरखे छवि अपने मन-हर की ।।

चञ्चलता लिये नवल-शिशु सी, दिन प्रति दिन रूप बदलता है।
ले पूर्ण रूप को निखर कभी, हर दिन घट घट कर चलता है।।
रजनी जब सुंदर थाल सजा, इसका आ राजतिलक करती।
आरूढ़ गगन-सिंहासन हो, कर दे यह रजतमयी धरती।।

बुध तारागण के बैठ संग, यह राजसभा में अंबर की।
संचालन करे राज्य का जब, छवि देखे बनती नृप वर की।।
यह रजत-रश्मि को बिखरा कर, भूतल को आलोकित करता।
शीतल सुरम्य किरणों से फिर, दाहकता हृदयों की हरता।।

जो शष्य कनक सम खेतों का, पा रजत रश्मियों की शोभा।
वह हेम रजतमय हो कर के, छवि देता है मन की लोभा।।
धरती का आँचल धवल हुआ, सरिता-धारा झिलमिल करती।
ग्रामीण गेह की शुभ्रमयी, प्रांजल शोभा मन को हरती।।

दे मधुर कल्पना कवियों को, मृगछौना सा भोलाभाला।
मनमोहन सा प्यारा चंदा, सब के मन को हरने वाला।।
रजनी के शासन में करके, यह 'नमन' धरा अरु अम्बर को।
यह भोर-पटल में छिप जाता, दे कर पथ प्यारे दिनकर को।।


बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
21-05-2016

Monday, April 5, 2021

ग़ज़ल (आ गयी होली)

बह्र:- 2122 2122 2122 2

पर्वों में सब से सुहानी आ गयी होली,
फागुनी रस में नहाई आ गयी होली।

टेसुओं की ले के लाली आ गयी होली,
रंग बिखराती बसंती आ गयी होली।

देखिए अमराइयों में कोयलों के संग,
मंजरी की ओढ़ चुनरी आ गयी होली।

चंग की थापों से गुंजित फाग की धुन में,
होलियारों की ले टोली आ गयी होली।

दूर जो परदेश में हैं उनके भावों में,
याद अपनों की जगाती आ गयी होली।

होलिका के संग सारे हम जला कर भेद,
भंग पी लें देश-हित की आ गयी होली।

एकता के सूत्र में बँध हम 'नमन' झूमें,
प्रीत की अनुभूति देती आ गयी होली।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
22-3-21

ग़ज़ल (जब तलक उनकी करामात)

बह्र:- 2122 1122 1122 22

जब तलक उनकी करामात नहीं होती है,
आफ़तों की यहाँ बरसात नहीं होती है।

जिनकी बंदूकें चलें दूसरों के कंधों से,
उनकी खुद लड़ने की औक़ात नहीं होती है।

आड़ ले दोस्ती की भोंकते खंजर उनकी,
दोस्ती करने की ही जा़त नहीं होती है।

अब हमारी भी हैं नज़दीकियाँ उनसे यारो,
यार कहलाने लगे बात नहीं होती है।

राह चुनते जो सदाक़त की यकीं उनका यही,
इस पे चलने से कभी मात नहीं होती है।

वे भला समझेंगे क्या ग़म के अँधेरे जिनकी,
ग़म की रातों से मुलाक़ात नहीं होती है।

ऐसी दुनिया से 'नमन' दूर ही रहना जिस में,
चैन से सोने की भी रात नहीं होती है।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
18-07-2020

ग़ज़ल (झूठे रोज बहाना कर)

बह्र:- 22  22  22  2

झूठे रोज बहाना कर,
क्यों तरसाओ ना ना कर।

फ़िक्र जमाने की छोड़ो,
दिल का कहना माना कर।

मेटो मन से भ्रम सारे,
खुद को तो पहचाना कर।

कब तक जग भरमाओगे,
झूठे जोड़ घटाना कर।

चैन तभी जब सोओगे,
कुछ नेकी सिरहाना कर।

जग में रहना है फिर तो,
इस जग से याराना कर।

दुखियों का दुख दूर 'नमन',
कोशिश कर रोजाना कर।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन',
तिनसुकिया
3-1-19