जो बने उम्मीद के थे वे क़िले अब ढ़ह गये;
जो महल ख्वाबों के थे वे आँसुओं में बह गये;
पर समझ अब आ गया है ढंग मुझ को जीने का;
जिंदगी जीता हूँ हँस तो ग़म सिमट के रह गये।
(2122*3 + 212)
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बड़ा जग में ईमान सब मानते हैं,
डिगेंगें न इससे क्या सब ठानते हैं,
बहुत कम ही ईमान वाले बचें अब,
बचें उनको भी हम कहाँ जानते हैं।
(122×4)
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कफ़स में क़ैद पंछी की तरह अरमान मेरे हैं,
अभी मज़बूरियाँ ऐसी हुए बेगाने अपने हैं,
मगर है हौसला जिंदा, न दे ये टूटने मुझ को,
झलक उम्मीद की पाने अभी खामोश सपने हैं।
(1222*4)
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
9-4-17
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